14 साल बाद भी कायम है फिल्म ‘द डर्टी पिक्चर’ का जादू
मुंबई, 06 दिसंबर (वेब वार्ता)। बॉलीवुड फिल्म ‘द डर्टी पिक्चर’ भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक सांस्कृतिक क्रांति थी। करीब 14 साल पहले मिलन लूथरिया के निर्देशन में बनी इस फ़िल्म ने उन सारी सीमाओं को तोड़ दिया था, जो दशकों से महिला-प्रधान फिल्मों के लिए तय मानी जाती थीं।
‘द डर्टी पिक्चर’ ने यह साबित कर दिया कि एक महिला कहानी की धुरी भी बन सकती है और बॉक्सऑफिस पर राज भी कर सकती है। फ़िल्म ने न सिर्फ व्यापारिक सफलता हासिल की बल्कि सामाजिक मानसिकता को भी चुनौती दी।‘सिल्क’ के किरदार में विद्या बालन का प्रदर्शन सिनेमा के इतिहास में एक उदाहरण बन गया।
सिल्क के भीतर मौजूद इच्छा, महत्वाकांक्षा, असुरक्षा, साहस, बेबाकी और भावनात्मक उथल-पुथल को विद्या ने जिस ईमानदारी के साथ जिया, उसने दर्शकों को झकझोर दिया। यही वजह है कि राष्ट्रीय पुरस्कार सहित फिल्मफेयर और कई अन्य सम्मान अपने नाम करने वाली इस फ़िल्म ने कंटेंट-ड्रिवनसिनेमा की दिशा बदल दी और यह स्थापित कर दिया कि महिला-केंद्रित कहानियाँ भी ब्लॉकबस्टर होसकती हैं।
फ़िल्म के संवाद आज भी लोकप्रिय संस्कृति का हिस्सा हैं। सोशल मीडिया, रील्स, मीम्स और आम बोलचाल में इन्हें आज भी उतनी ही तीव्रता के साथ दोहराया जाता है, जितनी रिलीज़ के समय। “फ़िल्में सिर्फ़ तीन चीज़ों की वजह से चलती हैं एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट… और मैं एंटरटेनमेंट हूँ।”
यह लाइन बॉलीवुड की सबसे पहचान बनाने वाली लाइनों में शुमार हो गई है। वहीं “कुछ लोगों का नाम उनके काम से होता है, मेरा बदनाम होकर हुआ है” और “जब ज़िंदगी एक बार मिली है, तो दो बार क्यों सोचें?” जैसे संवाद सिल्क की निडर और सीमा तोड़ने वाली सोच को उजागर करते हैं।
ये डायलॉग्स केवल किरदार की पंक्तियाँ नहीं थे, बल्कि एक स्त्री की आवाज़ थे, जिसने समाज द्वारा बनाए गए नियमों को चुनौती दी और अपनी कहानी खुद लिखी।
‘द डर्टी पिक्चर’ आज भी एक कल्ट क्लासिक है, क्योंकि उसने दर्शकों को यह सिखाया कि अपने सपनों और अस्तित्व के लिए लड़ना कभी गलत नहीं होता।
