सूरत : संतों का अपमान करने वाला व्यक्ति कभी शांति प्राप्त नहीं कर सकता : संदीपजी महाराज

महाराज ने कलयुग की बुराइयों से दूर रहने का दिया संदेश

सूरत : संतों का अपमान करने वाला व्यक्ति कभी शांति प्राप्त नहीं कर सकता : संदीपजी महाराज

श्री राधे मित्र मंडल, देलाडवा गांव (डिंडोली) सूरत द्वारा साउथ इंडियन स्कूल के सामने देलाडवा गांव में आयोजित सात दिवसीय श्रीमद् भागवत कथा के दूसरे दिन सोमवार को कथा व्यास संदीपजी महाराज ने श्रद्धालुओं को कलयुग के वास स्थानों से दूर रहने का संदेश दिया। उन्होंने कहा कि सत्संग के माध्यम से ही व्यक्ति का वास्तविक कल्याण संभव है।

व्यास पीठ से महाराज ने कलयुग के वास स्थानों का विस्तार से वर्णन करते हुए बताया कि जुआ, शराब, परस्त्री गमन, हिंसा और बेईमानी की कमाई के सोने में कलयुग का वास होता है। उन्होंने सभी श्रद्धालुओं से इन बुराइयों से दूर रहने और सदाचार के मार्ग पर चलने का आह्वान किया।

महाराज ने संतों के अपमान के गंभीर परिणामों पर भी प्रकाश डालते हुए कहा कि संतों का अपमान करने वाला व्यक्ति कभी शांति प्राप्त नहीं कर सकता और उसे राजा परीक्षित की तरह भयंकर श्राप का भागी बनना पड़ता है। उन्होंने श्रीमद् भागवत कथा का सार बताते हुए कहा कि यह ग्रंथ हमें दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करना सिखाता है, जैसा हम अपने लिए चाहते हैं। उन्होंने जोर देकर कहा कि कथा को केवल सुनना ही नहीं, बल्कि उसे अपने जीवन में उतारना आवश्यक है, तभी मानव जीवन सार्थक होता है।

कथा के दौरान संदीपजी महाराज ने भीष्म स्तुति का भी भावपूर्ण वर्णन किया। उन्होंने बताया कि भीष्म पितामह ने अपनी बुद्धि रूपी कन्या का विवाह भगवान श्रीकृष्ण के साथ किया। वे छह महीने तक बाणों की शय्या पर पड़े रहे और सूर्य के उत्तरायण होने पर अपने प्राणों का त्याग किया।

महाराज ने भगवान श्रीकृष्ण और बुआ कुंती के संवाद का उल्लेख करते हुए बताया कि जब भगवान ने कुंती से कुछ मांगने को कहा तो उन्होंने दुख मांगा। कुंती ने कहा कि दुख मिलने पर वे बार-बार भगवान को स्मरण करेंगी, जबकि सुख मिलने पर उन्हें भूल सकती हैं। इसके बाद युधिष्ठिर और पांडवों के स्वर्ग गमन तथा राजा परीक्षित के राज्याभिषेक की कथा का भी वर्णन किया गया।

संदीपजी महाराज ने बुरी संगति के विनाशकारी प्रभावों को समझाते हुए कहा कि बुरे व्यक्तियों का संग तुरंत छोड़ देना चाहिए, क्योंकि ऐसी संगति कभी कल्याणकारी नहीं हो सकती। उन्होंने श्रद्धालुओं को बुरे मित्रों और बुरी आदतों से दूर रहने की सलाह दी। कथा के अंत में महाराज ने कहा कि संतों के दर्शन, सत्संग और सेवा से ही विवेक जागृत होता है तथा श्रद्धा, विश्वास और समर्पण के बिना भगवान की भक्ति संभव नहीं है।

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