आषाढ़ी अमावस्या पर खलासी समाज की अनोखी परंपरा: रांदेर में निकली रवि-रांदल माँ की सवारी
यह परंपरा न केवल धार्मिक श्रद्धा का प्रतीक है, बल्कि हमारी लोक-संस्कृति और सामाजिक एकता को भी दर्शाती है
सूरत, रांदेर क्षेत्र आषाढ़ मास की अमावस्या का पावन पर्व खलासी समुदाय की बहनों के लिए विशेष धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व रखता है। सूरत के रांदेर क्षेत्र में रहने वाली खलासी बहनें इस दिन से लेकर अगले वर्ष की आषाढ़ अमावस्या तक "जव्यारा" बोने की परंपरा निभाती हैं।
सुबह-सवेरे वे सूर्यदेव की पत्नी रवि-रांदल माँ की पूजा-अर्चना करती हैं और उनके चरणों में भक्ति भाव से अर्पण करती हैं। इसके पश्चात, शाम को पांच बजे इस परंपरा का विशेष आकर्षण होता है — टेढ़ी के सिर पर रवि-रांदल माँ की सवारी निकाली जाती है, जिसे भव्य रूप से तापी नदी में विसर्जित किया जाता है। यह सवारी सूर्य की पुत्री के रूप में मानी जाती है, जो श्रद्धालुओं की भक्ति का केंद्र होती है।
इस दिन रांदेर क्षेत्र में मेलानुमा आयोजन भी होता है, जिसमें आसपास के लोग बड़ी संख्या में शामिल होते हैं। हालांकि यह परंपरा अब धीरे-धीरे विलुप्ति की ओर बढ़ रही है, फिर भी आज भी कुछ परिवार इसे जीवंत बनाए हुए हैं और पीढ़ी दर पीढ़ी इसका निर्वहन कर रहे हैं।
आषाढ़ी अमावस्या से लेकर दिवाली अमावस्या (आसो अमावस्या) तक पूरे समाज में हिंदू त्योहारों और उत्सवों की श्रृंखला शुरू हो जाती है, जिससे माहौल उत्साह और भक्ति से भर उठता है।
यह परंपरा न केवल धार्मिक श्रद्धा का प्रतीक है, बल्कि हमारी लोक-संस्कृति और सामाजिक एकता को भी दर्शाती है। आवश्यकता है कि इस विरासत को संरक्षित कर अगली पीढ़ियों तक पहुँचाया जाए।