सब्सिडी से आत्मनिर्भरता तक:  भारतीय किसानों की नई उड़ान, SOMS से बदले बागवानी के मायने

सब्सिडी से आत्मनिर्भरता तक:  भारतीय किसानों की नई उड़ान, SOMS से बदले बागवानी के मायने

लेखक: राजीब चक्रवर्ती राष्ट्रीय अध्यक्ष, SFIAविनोद गोयल, राष्ट्रीय सचिव, SFIA

भारतीय कृषि में उदारीकरण के बाद कई महत्वपूर्ण बदलाव आए, लेकिन जल में घुलनशील उर्वरकों (WSF) का आगमन एक क्रांतिकारी परिवर्तन साबित हुआ। ड्रिप सिंचाई ने जहां पानी की बचत को बढ़ावा दिया, वहीं सटीक पोषण (प्रेसिजन न्यूट्रिशन) ने खेती की गुणवत्ता और उत्पादकता में नया आयाम जोड़ा। महाराष्ट्र के कुछ अग्रणी एग्री उद्यमियों ने 1993 में पहली बार अंगूर किसानों के लिए WSF पेश किया, जो परंपरागत यूरिया से 10 से 15 गुना महंगा था। हालांकि, इस तकनीक की शुरुआत में सख्त सरकारी प्रतिबंधों के कारण 2001 तक इसका उपयोग सीमित रहा और केवल विशेष अनुमति या शोध परियोजनाओं के तहत ही इसका आयात संभव था।

2002 में जब 19-19-19 WSF को फर्टिलाइज़र कंट्रोल ऑर्डर (FCO) 1985 में शामिल किया गया, तो इसे बिना लाइसेंस के आयात करने की अनुमति मिली। यह छोटा सा नीति परिवर्तन एक बड़ी क्रांति की शुरुआत बन गया। एग्री उद्यमियों और एग्री-इनपुट कंपनियों ने किसानों को इस नई तकनीक के प्रति जागरूक करना शुरू किया। गांव-गांव जाकर वे किसानों को समझाने लगे कि पारंपरिक उर्वरकों की तुलना में WSF न केवल बेहतर उत्पादन देगा बल्कि उनकी आमदनी को भी बढ़ाएगा। इस प्रयास का परिणाम यह हुआ कि भारतीय बागवानी का परिदृश्य पूरी तरह बदलने लगा।

SOMS का समावेश, जिसमें जल में घुलनशील उर्वरक, सूक्ष्म पोषक तत्व, जैविक-प्राकृतिक उत्तेजक (बायो-स्टीमुलेंट) शामिल हैं, ने किसानों को वैश्विक मानकों पर खरा उतरने वाले फल और सब्जियां उगाने में सक्षम बनाया। 2021-22 तक यह बदलाव संख्याओं में स्पष्ट दिखने लगा। केवल न्हावा शेवा पोर्ट से 2.87 लाख टन कृषि उत्पादों का निर्यात हुआ, और भारत का कुल बागवानी उत्पादन 341 मिलियन टन तक पहुंच गया। SOMS आधारित खेती की बढ़ती स्वीकार्यता ने न केवल किसानों की आय को बढ़ाया बल्कि सरकार पर उर्वरक सब्सिडी के बोझ को भी कम किया।

एसएफआईए (Soluble Fertilizer Industry Association) और विदर्भ इंडस्ट्रीज एसोसिएशन (VIA) के संयुक्त अध्ययन के अनुसार, SOMS आधारित खेती ने पारंपरिक उर्वरकों जैसे यूरिया, DAP, MOP की खपत को 30-100% तक कम कर दिया है। केंद्र सरकार द्वारा सब्सिडी कम करने के लिए कई रणनीतियां अपनाई गईं – जैसे यूरिया पैक का आकार घटाना, उर्वरकों की गुणवत्ता में बदलाव, जागरूकता अभियान चलाना – लेकिन इनमें सीमित सफलता ही मिली। इसके विपरीत, SOMS आधारित खेती ने पारंपरिक उर्वरकों की आवश्यकता को काफी हद तक समाप्त कर दिया है। महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में यह बदलाव व्यापक रूप से देखा जा सकता है, और अब यह मध्य प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में भी तेजी से फैल रहा है। यह तकनीक अंगूर, अनार, प्याज, टमाटर, मिर्च, शिमला मिर्च, गेहूं, मक्का और फूलों की खेती में कारगर साबित हो रही है।

SOMS को एक पर्यावरणीय रूप से स्थायी, कार्बन-नकारात्मक, शून्य-अवशेष (Zero-Residue), मृदा-संरक्षण और अत्याधिक लाभदायक समाधान के रूप में पहचाना गया है। किसान को समझाया गया है कि किस तरह यूरिया, डीएपी और एमओपी के असंतुलित प्रयोग ने भूमि की क्षारीयता बढ़ा दी है और उर्वरा शक्ति का ह्रास किया है। अंधाधुंध हानिकारक रसायनों के प्रयोग से मानव, पर्यावरण और मिट्टी को भयंकर हानि हुई है और SOMS ही इसका अंतिम समाधान है। 2024-25 में भारत के 1.75 लाख हेक्टेयर अंगूर उत्पादन क्षेत्र, जिसमें 3.89 मिलियन टन वार्षिक उत्पादन होता है, पूरी तरह से गैर-सब्सिडी वाले WSF और SOMS आधारित खेती पर निर्भर हो चुके हैं। इसे ध्यान में रखते हुए, एसएफआईए और आईसीएआर-एनआरसी ग्रेप्स ने संयुक्त अध्ययन शुरू किया है ताकि उन एग्री उद्यमियों के योगदान को दस्तावेज़ किया जा सके जिन्होंने किसानों को इस बदलाव के लिए प्रेरित किया।

लेकिन इस महत्वपूर्ण बदलाव के बावजूद, SOMS उद्योग आज भी पुराने नियामक ढांचे में फंसा हुआ है। फर्टिलाइज़र कंट्रोल ऑर्डर (FCO) 1985, जो मूल रूप से सब्सिडी वाले यूरिया, डीएपी और एमओपी को नियंत्रित करने के लिए बनाया गया था, SOMS के विकास में बड़ी बाधा बन गया है। हर राज्य इसे अलग तरीके से लागू करता है, जिससे लाइसेंसिंग की जटिलताएं उत्पन्न होती हैं और SOMS की मुक्त आवाजाही बाधित होती है। इसके अलावा, उत्पादों में मामूली भिन्नता को भी अपराध की श्रेणी में रखा जाता है, जिससे निर्माताओं और आपूर्तिकर्ताओं को कानूनी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। वहीं, विदेशी निर्यातकों पर किसी भी तरह की जवाबदेही नहीं होती, लेकिन भारतीय उत्पादकों पर कठोर नियम लागू किए जाते हैं, जिससे घरेलू उत्पादन प्रभावित होता है। इसके अलावा, कस्टम विभाग की मनमानी भी आयातित SOMS की आपूर्ति को बाधित करती है।

वित्तीय सहायता की कमी भी एक प्रमुख चुनौती है। SOMS उद्योग को न तो नाबार्ड जैसी वित्तीय संस्थाओं से कोई सहायता मिलती है और न ही इसे कृषि विकास फंडों में प्राथमिकता दी जाती है। बैंक भी इसे प्राथमिकता वाले ऋण क्षेत्र (Priority Lending Sector) में नहीं रखते, जिससे एमएसएमई क्षेत्र की कंपनियों के लिए विस्तार करना मुश्किल हो जाता है। भारत में SOMS की खपत 3.5 लाख टन है, लेकिन इसमें से 95% आयात किया जाता है, जिसमें चीन प्रमुख आपूर्तिकर्ता है। इस तरह की निर्भरता भारत की बागवानी को आपूर्ति श्रृंखला संकट के प्रति संवेदनशील बना देती है।

SOMS पहले ही यह साबित कर चुका है कि यह पारंपरिक उर्वरकों के लिए एक व्यवहारिक और प्रभावी ‘सब्सिडी का समाधान’ (Solution to Subsidy) है। लेकिन इसके संपूर्ण लाभ उठाने के लिए भारत को एक आधुनिक नीति ढांचे की आवश्यकता है। इसके लिए निम्नलिखित कदम उठाए जाने चाहिए:

SOMS को पारंपरिक सब्सिडी वाले उर्वरकों से अलग मान्यता दी जाए।

पुराने कानूनों के अंतर्गत इसे फंसाने के बजाय इसके लिए अलग से नियामक व्यवस्था बनाई जाए।

उत्पाद में छोटे-मोटे बदलावों को अपराध की श्रेणी से बाहर किया जाए।

‘वन नेशन, वन लाइसेंस’ प्रणाली लागू की जाए, जिससे देशभर में SOMS की निर्बाध आवाजाही संभव हो।

इसे नाबार्ड और प्राथमिकता वाले ऋण क्षेत्र में शामिल किया जाए।

‘मेक इन इंडिया’ पहल के तहत इसका घरेलू उत्पादन बढ़ाने के लिए सरकारी सहायता दी जाए।

SOMS आधारित खेती की सफलता यह दर्शाती है कि जब रणनीतिक उद्यमशीलता, किसान-केंद्रित नवाचार और नीति सहयोग एक साथ आते हैं, तो कृषि क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन संभव है। भारतीय कृषि का भविष्य पहले से ही आकार ले चुका है, अब जरूरत है कि नीतियां भी इस बदलाव के साथ कदम से कदम मिलाकर चलें।

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