अमृत महोत्सव: स्वतंत्रता संघर्ष के अमर नायक रहे ''राणा बेनी माधव सिंह''
अवध को कराया था आजाद
रायबरेली,10 अगस्त (हि.स.)। भारत के इतिहास में 1857 का स्वतंत्रता संग्राम सबसे महत्वपूर्ण अध्याय है, जिसने बाद में स्वतंत्रता की अलख जगाई। इस क्रांति के केंद्र में अवध था और इसके महानायकों में राना बेनी माधव सिंह का नाम इतिहास के पन्नो में दर्ज है। प्रख्यात लेखक अमृत लाल नागर ने राणा को अवध की क्रांति का पुष्प बताया है। राना के शौर्य की गाथा आज भी रायबरेली के घर-घर में लोक कहावतों व गीतों में मौजूद है।
1856 में अवध के नवाब वाजिद अली शाह को अंग्रेजों द्वारा पद से हटाने का सबसे मुखर विरोध राणा बेनी माधव ने ही किया था। ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा बनाया गया रायबरेली का सलोन जिला मुख्यालय पर हुआ विद्रोह राणा की ही संगठन क्षमता की देन थी। राणा के नेतृत्व और संगठन को लेकर ऐसी दूर दृष्टि थी कि 1857 की क्रांति के पहले ही पूरे रायबरेली जिले में जगह-जगह विद्रोह शुरू हो गया था। कंपनी के मेजर गाल की हत्या और न्यायालय पर हमला करके आग लगा देना यह सब राणा की गुरिल्ला रणनीति का एक उदाहरण था।
ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ़ 10 मई 1857 को शुरू हुई क्रन्ति के प्रमुख नायक के रूप में राणा बेनी माधव ही थे। जुलाई 1857 में बेगम हजरत महल ने 12 वर्षीय बेटे बिरजिस कद्र को अवध की ताजपोशी कर दी थी। राणा के नेतृत्व में पूरे 18 महीने तक अवध कंपनी के चंगुल से आज़ाद हो चुका था। 17 अगस्त 1857 को राणा बेनी माधव को जौनपुर व आजमगढ़ का प्रशासक नियुक्त किया गया। इस बीच अवध के जिलों में अंग्रेजों को भारी विरोध का सामना करना पड़ा। जगह-जगह राणा बेनी माधव के नेतृत्व में जमींदारों, तालुकेदारों व स्थानीय लोग ब्रिटिश सेना का विरोध कर रहे थे। राणा की यह गुरिल्ला तकनीक काम आ रही थी और अंग्रेज अधिकारी अवध को दुबारा हासिल करने में नाकाम हो रहे थे।
लखनऊ में क्रांति का प्रारम्भ 30 मई 1857 को हुआ। उस समय राणा अपने 15 हज़ार सैनिकों के साथ वहां मौजूद थे।बेलीगारद, रेजीडेंसी व आलमबाग के युद्ध मे। उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। रायबरेली से भी बड़ी मात्रा में अवध की बेगम को सहायता भेजी गई। लखनऊ जिसमें सलोन के नाजिम द्वारा 2000 लोगों की टुकड़ी, राणा के भाई जोगराज सिंह द्वारा 700 लोग, बंदूकें, सेमरपहा व खूरगांव से 1300 लोग व बंदूके थी। उधर रायबरेली के दक्षिणी भाग में राणा के आदेश पर नायन के भगवान बख्श व जगन्नाथ बख्श विशाल सेना के साथ अंग्रेजों को कड़ी चुनौती दे रहे थे। राणा की संगठन क्षमता ऐसी थी कि पूरे अवध को उन्होंने एक सूत्र में पिरो दिया। 18 नवम्बर 1858 को कोलिन कैम्पबेल राणा को पकड़ने शंकरपुर पहुंचा लेकिन वह इसमें कामयाब नहीं हो सका। अगले दिन कैम्पबेल ने खाली दुर्ग को तहस नहस करा दिया और आसपास के इलाकों को भी खाली करा लिया।
कंपनी सरकार को हमेशा चकमा देने वाले राणा को अंग्रेज कभी पकड़ नहीं सके। उनके निधन को लेकर भी मतभेद है। इतिहास में कई उल्लिखित प्रसंगों से पता चलता है कि राणा नेपाल चले गए थे और वहां उनका सामना अंग्रेजों के साथी राणा जंग बहादुर से भयंकर युद्ध हुआ। माना जाता है कि इस युद्ध में राणा शहीद हो गए।इस घटना का उल्लेख इतिहासकार रॉबर्ट मार्टिन ने किया है और इसकी पुष्टि हावर्ड रसेल के 21 जनवरी 1860 में लिखे एक पत्र से भी होती है।वह शहीद हो गए लेकिन डेढ़ शदी के बाद भी आज वह लोककला, संस्कृति और लोक गायन के माध्यम से लोगों के मन मस्तिष्क में जीवंत हैं।