सूरत : एक पिता को अपने बेटे का मृत्यु प्रमाण पत्र बनवाने में लग गए 38 साल, जानें क्या था मामला

सूरत : एक पिता को अपने बेटे का मृत्यु प्रमाण पत्र बनवाने में लग गए 38 साल, जानें क्या था मामला

मानसिंह देवधरा को अपने बेटे जितेंद्रसिंह को मृत घोषित करने के लिए लंबी कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी थी

एक दशक लंबी कानूनी लड़ाई के बाद बुजुर्ग मानसिंह देवधरा को आखिरकार 38 साल पहले रहस्यमय तरीके से लापता हुए अपने बेटे का मृत्यु प्रमाण पत्र मिल जाएगा। मामला काफी लंबा चला और गुजरात हाईकोर्ट ने इस मामले पर विशेष संज्ञान लिया। 
मानसिंह देवधरा को अपने बेटे जितेंद्रसिंह को मृत घोषित करने के लिए लंबी कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी थी। उन्होंने इस मामले पर 2012 में न्यायपालिका का दरवाजा खटखटाया था। उस समय निचली अदालतों की राय थी कि अदालत का दरवाजा खटखटाने में बहुत देर हो चुकी थी। लॉ ऑफ लिमिटेशन (कानून की सीमा) के कारण उनका दावा खारिज कर दिया गया था।
हालांकि, गुजरात उच्च न्यायालय ने बाद में इस टिप्पणी के साथ दो निचली अदालतों के फैसलों को पलट दिया। अदालत ने कहा कि परिवार के लापता सदस्य की वापसी के लिए कई वर्षों तक इंतजार करना एक मानवीय प्रवृत्ति है, इस तथ्य की अनदेखी की गई है। उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि ऐसे मामलों में सीमा का कानून लागू नहीं किया जा सकता है।
एक रिपोर्ट के मुताबिक, देवधरा का बेटा कॉलेज की पढ़ाई के लिए सूरत में अपने चचेरे भाई के घर रह रहा था। इस बीच, वह 31 जनवरी, 1984 को लापता हो गया। जिससे परिवार ने पुलिस को सूचना दी और अखबारों में विज्ञापन भी दिए। लेकिन उन्हें जितेंद्र सिंह नहीं मिला। इसलिए पिता ने अपने बेटे को मृत घोषित करने के लिए सूरत की सिविल कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। उनका मानना था कि रिकॉर्ड में एक प्रविष्टि करने से संपत्ति पर अवैध दावों को रोका जा सकेगा।
दीवानी अदालत ने उनसे अपने बेटे के लापता होने के सबूत पेश करने को कहा। देवधरा ने जो कुछ उसके पास था उसे पेश किया और अदालत को बताया कि 2006 के सूरत बाढ़ में पुलिस रिकॉर्ड बह गए थे। 2016 में, दीवानी अदालत ने देवधरा के दावे को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि वे समय सीमा यानी कि उन्हें अपने बेटे के लापता होने के 10 साल के भीतर अदालत का दरवाजा खटखटाना चाहिए था। साक्ष्य अधिनियम 108 के तहत लॉ ऑफ लिमिटेशन (कानून की सीमा) द्वारा उनके दावे को खारिज कर दिया गया था।
इसके बाद देवधरा जिला अदालत गए, जहां उन्हें सफलता नहीं मिली। इसलिए उन्होंने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। जहां जस्टिस एपी ठाकर ने उनकी अपील को मंजूर करते हुए सरकार को उन्हें मृत घोषित करने का आदेश दिया। आदेश में कहा कि परिवार को सिर्फ सात साल इंतजार नहीं करना जरुरी नहीं। प्रतीक्षा अवधि दशकों तक हो सकती है। एक निश्चित अवधि के बाद,  इस बात की कोई धारणा नहीं हो सकती है कि परिवार के सदस्य किसी निश्चित तिथि या निश्चित समय के भीतर किसी लापता व्यक्ति की मृत्यु को स्वतः ही मान लेंगे।
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