क्या न्यायालय विधेयकों को मंजूरी देने के संबंध में समयसीमा निर्धारित कर सकता है: राष्ट्रपति

क्या न्यायालय विधेयकों को मंजूरी देने के संबंध में समयसीमा निर्धारित कर सकता है: राष्ट्रपति

नयी दिल्ली, 15 मई (भाषा) राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने दुर्लभ स्थितियों में इस्तेमाल किए जाने वाले अनुच्छेद 143(1) के तहत अपनी शक्तियों का उपयोग करते हुए उच्चतम न्यायालय से यह जानना चाहा है कि क्या राज्य विधानसभाओं की ओर से पारित विधेयकों पर राष्ट्रपति के विचार के लिए न्यायिक आदेश के जरिये समय-सीमा निर्धारित की जा सकती है।

संविधान का अनुच्छेद 143(1) उच्चतम न्यायालय से परामर्श करने से जुड़ी राष्ट्रपति की शक्ति से संबंधित है। इस शक्ति का इस्तेमाल राष्ट्रपति तब करता है जब उसे यह प्रतीत होता है कि किसी कानून या किसी तथ्य को लेकर कोई सवाल खड़ा हुआ है या इसकी आशंका है।

राष्ट्रपति को जब यह लगता है कि कोई सवाल सार्वजनिक महत्व से जुड़ा है और यदि इस पर उच्चतम न्यायालय की राय प्राप्त करना समीचीन है, तो वह प्रश्न को विचारार्थ उच्चतम न्यायालय को भेज सकता है और न्यायालय सुनवाई के पश्चात अपनी उचित राय राष्ट्रपति को सूचित कर सकता है।

उच्चतम न्यायालय ने तमिलनाडु विधानसभा से पारित विधेयकों को मंजूरी देने की राज्यपाल की शक्तियों के मामले में आठ अप्रैल को एक फैसला सुनाया था, जिसके आलोक में राष्ट्रपति ने न्यायालय से 14 सवाल पूछे हैं।

आठ अप्रैल के फैसले में पहली बार यह प्रावधान किया गया कि राष्ट्रपति को राज्यपाल द्वारा विचारार्थ सुरक्षित रखे गए विधेयकों पर संदर्भ प्राप्त होने की तारीख से तीन महीने के भीतर निर्णय लेना चाहिए।

राष्ट्रपति मुर्मू ने पांच पन्नों में उच्चतम न्यायालय से 14 प्रश्न पूछे हैं और राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों को लेकर अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राज्यपाल, राष्ट्रपति की शक्तियों पर उसकी राय पूछी है।

अनुच्छेद 200 राज्य विधानसभा द्वारा विधेयक पारित करने से संबंधित स्थितियों तथा तत्पश्चात राज्यपाल के पास अनुमति देने, अनुमति न देने अथवा विधेयक को पुनर्विचार के लिए राष्ट्रपति के पास भेजने के विकल्प उपलब्ध कराने से संबंधित है।

अनुच्छेद 201 राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के विचारार्थ रोके गये विधेयकों से संबंधित है।

केंद्र सरकार ने तमिलनाडु मामले में दिए गए न्यायालय के फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दायर करने के बजाय राष्ट्रपति के जरिये सवाल पूछा है, जिस पर राजनीतिक हलकों में तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिली है।

नियमों के अनुसार, पुनर्विचार याचिकाओं पर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के उसी पीठ द्वारा चैंबर में सुनवाई की जाती है, जिसने फैसला सुनाया होता है, जबकि राष्ट्रपति के संदर्भों पर पांच-सदस्यीय संविधान पीठ सुनवाई करती है।

हालांकि, न्यायालय राष्ट्रपति द्वारा पूछे गए किसी भी या सभी प्रश्नों का उत्तर देने से इनकार भी कर सकता है।

राष्ट्रपति के 13 मई के पत्र में कहा गया है कि अनुच्छेद 200 में, संवैधानिक विकल्पों के इस्तेमाल को लेकर राज्यपाल के लिए कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं की गई है।

राष्ट्रपति ने कहा कि इसी तरह संविधान के अनुच्छेद 201 में, संवैधानिक विकल्पों के इस्तेमाल को लेकर राष्ट्रपति के लिए किसी समय-सीमा या प्रक्रिया का प्रावधान नहीं है।

राष्ट्रपति मुर्मू ने न्यायालय द्वारा संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत शक्तियों का उपयोग करके विधेयक को पारित मानकर दोबारा तमिलनाडु के राज्यपाल को भेजने के आदेश पर भी सवाल उठाया।

राष्ट्रपति मुर्मू ने न्यायालय से 14 प्रश्न पूछते हुए कहा है कि उन्हें ऐसा प्रतीत होता है कि ये प्रश्न सार्वजनिक महत्व के हैं कि इन पर उच्चतम न्यायालय की राय लेना आवश्यक है।

उच्चमत न्यायालय के आठ अप्रैल के फैसले में विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर फैसला करने को लेकर सभी राज्यपालों के लिए समयसीमा निर्धारित की गई है और कहा गया है कि राज्यपालों को उनके समक्ष प्रस्तुत किसी भी विधेयक के संबंध में संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत कार्यों के प्रयोग में कोई विवेकाधिकार नहीं है और उन्हें मंत्रिपरिषद की सलाह का अनिवार्य रूप से पालन करना होगा।

न्यायालय ने कहा था कि यदि राज्यपाल द्वारा विचार के लिए भेजे गए विधेयक पर राष्ट्रपति मंजूरी नहीं देता है तो राज्य सरकारें सीधे सर्वोच्च न्यायालय का रुख कर सकती हैं।