'संघम् शरणम् गच्छामि : आरएसएस के सफर का एक ईमानदार दस्तावेज' (पुस्तक समीक्षा)

'संघम् शरणम् गच्छामि : आरएसएस के सफर का एक ईमानदार दस्तावेज' (पुस्तक समीक्षा)

इस किताब को लेखक ने संघ की विचारधारा का पर्याय मानकर राजनीति और विचारधारा के बीच के अंर्तसबंधों से जुड़े हुए प्रचलित प्रश्नों से शुरुआत की है और इसी क्रम के मध्य में राम मंदिर के निर्माण और आखिरी हिस्से में आरएसएस की कार्यशैली में आए परिवर्तनों की जबरदस्त तरीके से पड़ताल की है।

आशुतोष कुमार ठाकुर 

चर्चित पत्रकार विजय त्रिवेदी की हाल ही में एक किताब आई है - 'संघम् शरणम् गच्छामि आरएसएस के सफर का एक ईमानदार दस्तावेज'। इस पुस्तक की प्रस्तावना लिखी है, आरएसएस की पृष्ठभूमि से आए भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता और भारत सरकार में मंत्री नितिन गडकरी ने।

यह तेरह अध्यायों में वर्गीकृत छोटे-बड़े आख्यानों से बनी 437 पन्नों की किताब है। इस किताब को लेखक ने संघ की विचारधारा का पर्याय मानकर राजनीति और विचारधारा के बीच के अंर्तसबंधों से जुड़े हुए प्रचलित प्रश्नों से शुरुआत की है और इसी क्रम के मध्य में राम मंदिर के निर्माण और आखिरी हिस्से में आरएसएस की कार्यशैली में आए परिवर्तनों की जबरदस्त तरीके से पड़ताल की है।

यहां इस बात का उल्लेख इसलिए आवश्यक है, क्योंकि संघ के 95 साल पूरे होते समय भी बार-बार यह सवाल पूछा जाता है कि क्या संघ बदल रहा है? क्या संघ वक्त के साथ बदलाव के लिए तैयार है? क्या संघ फ्लेक्सीबल संगठन है या कट्टरपंथी संगठन है?

विजय त्रिवेदी इन अनेक बिंदुओं का जिक्र करते हुए उस आधार पर जो वितान रचते हैं, जो वैचारिक दस्तावेज हमारे समक्ष प्रस्तुत करते हैं, विमर्शो के जिन दरिया में हमें उतारते हैं, वह आज के समय की जरूरत है। एक खास पहलू जो इस किताब को अलग महत्व देता है, वह है लेखक के स्पष्ट विचार। लेखक समावेशी है, लेकिन वह कहीं भी गलत को गलत कहने से हिचकता नहीं है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) 1925 में अपने स्थापना वर्ष से ही लगातार कई गंभीर सवालों के घेरे में रहा है। एक संगठन के रूप में आरएसएस के द्वारा इन सवालों के ठोस जवाब देने की कभी कोशिश भी नहीं की गई, यही कारण है कि एक समेकित विमर्श में हमेशा उसे संदेह की नजर से ही देखा गया है और यह अनायास नहीं है, इसके पीछे कई प्रत्यक्ष कारण भी हैं, जैसे : महात्मा गांधी की मृत्यु में संघ की क्या भूमिका थी? 'हिंदू राष्ट्र' वाक्यांश का उपयोग संघ परिवार और उसके अनुयायियों द्वारा किया जाता है, तो इसके वास्तविक मायने क्या हैं? हिंदू दलितों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं को लेकर संघ की अस्पष्ट नीति? देश को हिंदू अतिवाद के सांप्रदायिक विमर्श में घसीटना? और लगातार हिंदू राष्ट्र की बातकर समाज के एक संप्रदाय को नीचा दिखाने की कोशिश?

ये कुछ ऐसे ही प्रश्न हैं जो संघ के समक्ष अपने जन्मकाल से ही जुड़े हुए हैं।

यह पुस्तक, आरएसएस के अब तक के पूरे सफर के तथाकथित मील के पत्थरों को बताते हुए, एक 'विचारधारा' की ऐतिहासिकता का आभास देता हुआ आख्यान है।

किताब कि शुरुआत में ही, लेखक बहुत बारीकी से बताते हैं कि 1925 में डॉ. हेडगेवार ने भारत को एक हिंदू राष्ट्र के रूप में देखने के सपने के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नींव रखी थी। यह निर्विवाद है कि कैसे हिंदुत्व में राष्ट्रवाद के मेल ने सत्ता के शीर्ष तक पहुंचने के लंबे सफर को आसान किया। इसमें नेता नहीं, विचारधारा महत्वपूर्ण है।

संघ को सिर्फ शाखा के रास्ते समझना 'पंचतंत्र के हाथी' को एक तरफ से महसूस करना भर है। ऐसा दवा किया जाता है कि संघ दुनिया का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन है। लेखक ने भी कमाल यह किया है कि शिल्प से शुरू की हुई बात कब कथ्य का रूप ले लेती है, यह आपको तब पता चलता है, जब आप एक से दूसरे और अन्य अध्याय पर पहुंचते हैं।

लेखक हमें आंकड़ों के माध्यम से बताते हैं कि संघ के आज करीब 1,75,000 प्रकल्प और 60,000 से ज्यादा शाखाएं चलती हैं। देश के बाहर 40 से अधिक देशों में उसके संगठन हैं। 95 वर्षो की अपनी यात्रा में संघ उपेक्षा और विरोध की स्थितियों को पारकर अब क्रमश: स्वीकार्यता की ओर बढ़ रहा है। लोगों में संघ को लेकर न केवल नजरिया बदला है, बल्कि उसमें शामिल होने वालों की तादाद भी लगातार बढ़ रही है।

विजय त्रिवेदी ने अपनी गहन शोध से किताब में आरएसएस के मूलभूत अवयवों से जुड़े हुए साक्ष्यों को हमारे समक्ष प्रस्तुत करने का सफलतापूर्वक प्रयास किया है। किताब में, लेखक संघ की विचारधारा, उसके संविधान, अबतक के सफर, चुनौतियों, हिंदुत्व के प्रश्न, संघ पर लगे प्रतिबंध, संगठन के भीतर के अंतर्विरोधों, राजनीतिक प्रश्न और संघ के बदलते सरोकारों को बड़े ही विस्तार से समझाया है।

आरएसएस 'फीनिक्स' पक्षी की तरह है। विजय बहुत सरलता से हमें बताते हैं, किसी भी संगठन के लिए करीब सौ साल का सफर अहम होता है। एक जमाने तक आरएसएस पर रायसीना हिल से एक बार नहीं, तीन-तीन बार पाबंदी लगी है। लेकिन वक्त का पहिया घूमा, समय चक्र तेजी से चल रहा था। आज संघ के लोग रायसीना हिल पर काबिज हैं।

आज आरएसएस कोई हाशिये का संगठन नहीं, बल्कि भारत की सत्ता को नियंत्रित करने वाला संगठन है। राष्ट्रपति से प्रधानमंत्री और दर्जनों मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री, राज्यपाल और कई महत्वपूर्ण पदों पर ऐसे लोग बैठे हैं, जिनकी राजनीतिक और सामाजिक कार्यो की ट्रेनिंग संघ में हुई।

वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में हम इस पूरे विमर्श को देखेंगे तो हमें आरएसएस के उत्कर्ष के ठोस कारण का भी पता चलता है। कांग्रेस के कमजोर होने, समाजवादियों में परिवारवाद का वर्चस्व और लेफ्ट के लगभग गायब होने से राजनीति के क्षेत्र में जो खालीपन आया, वैक्यूम बना, संघ ने उसे भर दिया है। करीब सौ साल होने को आए, क्या अब संघ बदल रहा है?

इस किताब के माध्यम से विजय हमें बताते हैं कि कैसे, संघ यह मानता है कि परिवर्तन ही स्थायी है। अब जिंदगी का शायद ही कोई पहलू हो, जिसे संघ नहीं छूता। बदलते व़क्त के साथ संघ ने सिर्फ अपना गणवेश ही नहीं बदला, नजरिए को भी व्यापक बनाया है। शायद यही कारण है कि तीन-तीन बार सरकार के प्रतिबंधों के बाद भी उसे खत्म नहीं किया जा सका, बल्कि उसका सतत विस्तार हुआ।

इक्कीसवीं सदी में देश के साथ-साथ आरएसएस भी बदल रहा है। संघ संस्कृति और परपंराओं को आगे बढ़ाने के साथ आधुनिक और मौजूदा वक्त की जरूरतों के हिसाब से बदलने की बात करता है। संगठन के तौर पर भी उसमें ऐसे ही बदलाव होते रहते हैं।

इस किताब में तथ्यों के साथ, लेखक हमें अवगत करवाते हैं कि कैसे आरएसएस में बदलाव को चुनौती की तरह लेने का हिम्मत भरा काम सबसे पहले तीसरे सरसंघचालक बालासाहब देवरस ने किया था। अब आरएसएस को एक रहस्यमयी संगठन नहीं कहा जा सकता, उसने अपने दरवाजे खोले हैं, ज्यादा पारदर्शी और जवाबदेह हो गया है। संघ अब अपने विरोधियों को तो स्पष्ट तौर पर जवाब देता ही है, अपने कार्यक्रमों और विचारों को भी सार्वजनिक तौर पर रखने में उसे हिचकिचाहट नहीं होती।

इसी क्रम में विजय हमें बताते हैं कि कैसे संघ ने समाज के बदलावों को समझा है और उनके साथ चलने की कोशिश की है। जो लोग संघ को पुरातनपंथी संगठन समझते हैं, उन्होंने उसके सफर और बदलावों को गहराई से समझने का प्रयास नहीं किया है। समय के साथ यहां तक कि समाज में परिवार के स्तर और सामाजिक स्तर पर हुए बदलावों को संघ ने स्वीकार किया है।

विजय त्रिवेदी ने बहुत स्पष्टता के साथ आरएसएस के कार्यशैली में आए बदलावों को हमारे सामने रखा है, जैसे : संघ औरत और पुरुष को परिवार में बराबरी के हक के पक्ष में है और महिलाओं के योगदान को कम नहीं आंकता। संघ पारिवारिक हिंसा और कन्या भ्रूणहत्या के खिलाफ है। संघ अंतर्जातीय विवाह के पक्ष में है, लेकिन फिलहाल 'लिव-इन-रिलेशनशिप' के विरोध में खड़ा दिखाई देता है। संघ ट्रांसजेंडर यानी किन्नरों के साथ सामाजिक भेदभाव के खिलाफ है।

अब संघ ने नया कार्यक्रम पर्यावरण और जल संकट को लेकर शुरू किया है, इस वक्त संघ का प्रमुख एजेंडा ग्राम विकास है। आरएसएस ने परिवारों में होते बदलावों, तेजी से बढ़ती तलाक दर, परेशानियों, टूटते परिवारों की समस्या को भी समझा है। इक्कीसवीं सदी के हिसाब से आरएसएस ने ना केवल खुद के स्वरूप को बदला है, बल्कि अपने कार्यक्रमों और मुद्दों के फोकस में भी बदलाव किया है।

लेखक ने अपने भाषा-शिल्प और पत्रकारिता के विराट अनुभव से हमें बताते हैं कि किस प्रकार से आरएसएस ने पिछले पच्चीस साल में अपने सहयोगी संगठनों के विस्तार पर काम किया, साथ ही कोशिश की है कि इन संगठनों का काम ना केवल सामाजिक कार्य और सेवा हो, बल्कि उनका असर सरकारों के नीतिगत फैसलों पर भी पड़े और सरकारें इसके लिए जरूरी बदलाव करें। हर संगठन अपने क्षेत्र के काम के लिए राज्य सरकारों और केंद्र सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश करता रहता है। इस प्रकार का विकास, भारत के वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए कितना सही है, यह एक अलग विमर्श का विषय है।

अनुभवी पत्रकार- लेखक, विजय त्रिवेदी ने इस किताब में संघ के अब तक के सफर के ऐसे सभी अहम पड़ाव दर्ज किए हैं, जिनके बिना भारत को पूरी तरह से समझना मुश्किल होगा। संघ की यात्रा के माध्यम से वह भारतीय राजनीति के कुछ अनकहे हिस्सों की परतें भी उघाड़ते हैं। संघ के लगभग सभी पहलुओं को छूनेवाली यह किताब न सिर्फ अतीत का दस्तावेज है, बल्कि भविष्य का संकेत भी है। वो हरएक संघटन जो भारतीय संघ प्रणाली का हिस्सा है, उसे इसी अंदाज से देखे जाने की जरूरत है, जैसे यह किताब 'संघ' को देखती है।

'संघम् शरणम् गच्छामि' राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर कई मायनों में एक संपूर्ण किताब है जो उसके समर्थकों के साथ-साथ उसके आलोचकों को भी पढ़नी चाहिए, क्योंकि हकीकत यह है कि आप संघ को पसंद कर सकते हैं या फिर नापसंद, लेकिन उसे नजरअंदाज करना नामुमकिन है।

प्रकाशक : वेस्टलैंड एका / भाषा : हिंदी / पृष्ठ : 437 / मूल्य : रु 599

(समीक्षक आशुतोष कुमार ठाकुर बेंगलुरु में रहते हैं। पेशे से मैनेजमेंट कंसलटेंट और कलिंगा लिटरेरी फेस्टिवल के सलाहकार हैं)

-आईएएनएस

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