झारखंड के खूंटी जिले के गोरेया यादव समाज में गोवर्धन पूजा की लुप्त होती अनूठी परंपरा

खास बात है कि इस गोवर्धन पूजा में बकरे की बलि दी जाती है, हालांकि, अब यह परम्परा लुप्त होने के कगार पर है

झारखंड के खूंटी जिले के गोरेया यादव समाज में गोवर्धन पूजा की लुप्त होती अनूठी परंपरा

खूंटी (झारखंड), 3 दिसंबर (हि.स.)। वैसे तो राज्य के खूंटी जिले के हिंदू समाज में पूजा की कई पद्धतियां हैं लेकिन यहां के गोरेया यादव समाज में होने वाली गोवर्धन पूजा की कुछ अलग ही परम्परा है। सामान्यतया गोवर्धन पूजा कार्तिक महीने में की जाती थी लेकिन क्षेत्र में छठ महाव्रत का प्रचलन बढ़ने से यह पूजा अगहन के महीने में होने लगी। खास बात है कि इस गोवर्धन पूजा में बकरे की बलि दी जाती है। हालांकि, अब यह परम्परा लुप्त होने के कगार पर है।

पतराहा पीता है बकरे का ताजा खून

गोरेया यादव समाज में की जाने वाली गोवर्धन पूजा की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका होती है पतराहा या चटिया की। उसके निर्देश पर ही सारे पूजा अनुष्ठान संपन्न किये जाते हैं। पूजा के दिन पतराहा गांव के किसी तालाब में स्नान करने के बाद बाघ की भाव भंगीमा में ढोल-नगाड़े की धुन पर उछलते-कूदते गांव के बाहर स्थापित पूजा स्थल पर पहुंचता है और पूजा-अर्चना करने के बाद बकरे की बलि देने का आदेश देता है।

जैसे ही बकरे की बलि दी जाती है वैसे ही वह बकरे के कटे गर्दन पर मुंह लगाकर ताजा खून पीने लगता है। बाद में घी और दूध भी पीता है। बलि और पूजा अनुष्ठान के दौरान पतराहा नाचता रहता है। कुछ देर के अंतराल में वह जमीन पर बैठ जाता है या लेट जाता है। दो-चार लोग उसके कान पर जोर-जोर से गाना गाते हैं तब वह उठकर फिर नाचने लगता है।

दो दिन पहले अपने गांव चिदी में गोवर्धन पूजा करने वाले सेवानिवृत्त शिक्षक अभिमन्यु गोप कहते हैं कि उनके समाज की यह परंपरा संभवतः हजारों साल पुरानी है। यही कारण है कि इसमें बकरे की बलि के बाद पतराहा द्वारा ताजा खून पीने और बकरे का कलेजा निकालकर बिना पकाये खाने की परंपरा है। उन्होंने कहा कि संभवतः उस समय आग का आविष्कार न हुआ हो और आखेट युग में लोग कच्चा मांस खाते हों। उन्होंने कहा कि काफी पुरानी परंपरा होने के कारण ही इस पूजा में न पंडित-पुरोहित की जरूरत होती है और किसी मंत्रोच्चार की।

गोपी मियां की भी होती है पूजा

जिस स्थान पर गोवर्धन पूजा होती है, उसे थान कहा जाता है और वह स्थान हमेशा गांव के बाहर होता है। वहां गोवर्धन गिरिधारी के प्रतीक के रूप में काले रंग का एक पत्थर, भगवान इंद्र के प्रतीक के तौर पर एक मोटी लकड़ी और उससे कुछ दूरी पर गोपी मियां के प्रतीक के रूप में एक छोटा काला पत्थर गड़ा रहता है। गोपी मियां के संबंध में अभिमन्यु गोप, जगदीप गोप और प्रदीप गोप कहते हैं कि गोरेया यादव परिवार में परंपरा है कि जब तक गोवर्धन पूजा नहीं हो जाती तब तक घर से किसी को कुछ नहीं दिया जाता। खासकर दूध।

उन्होंने कहा कि मुगलकाल में किसी राजा ने अपने नौकर को यादव के घर दूध लाने को भेजा। उस दिन गांव में गोवर्धन पूजा हो रही थी और पूजा पूरी नहीं हुई थी। इसलिए राजा को दूध नहीं दिया गया। इस पर नौकर जिसका नाम गोपी मियां था, वह एक भैंस को जबरन ले जाने लगा लेकिन भैंस ने उसे उसी स्थान पर मार डाला, जहां पूजा हो रही थी। गोपी मियां को वहीं दफना दिया गया। उसी के प्रतीक के रूप में एक काला पत्थर गाड़ा जाता है। गोवर्धन और इंद्र के साथ ही गोपी मियां के प्रतीक की भी पूजा होती है लेकिन इस पर चढ़े प्रसाद को कोई नहीं खाता।

सेली के बिना नहीं होती पूजा

गोवर्धन पूजा में एक महत्वपूर्ण चीज होती है सेली। यह किसी बछिया की पूंछ के बालों से बनी रस्सी होती है। पूजा के दौरान पतराहा अपने शरीर पर इसी रस्सी से खुद पर लगातार वार करता रहता है। अभिमन्यु गोप कहते हैं कि यह काफी सख्त होती है और काफी चोट लगती है लेकिन अनुष्ठान के दौरान पतराहा के शरीर पर इस वार का कोई असर नहीं पड़ता।

ठेंगा रोटी होती है खास प्रसाद

गोवर्धन पूजा का खास प्रसाद होता है, जिसे ठेंगा रोटी कहते हैं। अरवा चावल, दूध और गुड़ से बने ठेंगा रोटी का नामकरण इसके आकार के कारण पड़ा। यह छोटे डंडे, जिसे नागपुरी भाषा में ठेंगा कहा जाता है की तरह देखने में लगता है। अभिमन्यु गोप ने कहा ठेंगा रोटी सिर्फ यादव परिवार में ही बनाई जाती है। किसी अन्य जाति या समुदाय में नहीं। यादव परिवार में भी ठेंगा रोटी सिर्फ गोवर्धन पूजा और होली के दिन ही बनाई जाती है। अन्य दिनों या पर्व त्योहार में नहीं।

अब नहीं मिलते पतराहा

समय के साथ बकरे का खून पीने का अनुष्ठान करने वाले पतराहा नहीं मिलते। नई पीढ़ी इस परंपरा को आगे बढ़ाना नहीं चाहती। अभी पूरे इलाके में एकमात्र चटिया अया पतराहा हैं। तोरपा प्रखंड के बुदू गांव के रहने वाले जीतवाहन गोप कहते हैं कि पहले इस इलाके में दर्जनों पतराहा हुआ करते थे लेकिन उनके गुजरने के बाद अब इस अनुष्ठान को पूरा करने को नयी पीढ़ी के लड़के तैयार नहीं हैं। यही कारण है कि हजारों साल पुरानी यह परंपरा अब खत्म होने के कगार पर है।

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