मिथिलांचल के मनमोहक संस्कृति की याद दिलाने वाला लोक पर्व 'सामा-चकेवा' शुरू
बीते रात से शुरू इस लोक पर्व की समाप्ति कार्तिक पूर्णिमा की रात होगी
बेगूसराय, 21 नवम्बर (हि.स.)। विभिन्न लोक संस्कृति और लोक पर्व को अपनी धारा में बसाए मिथिलांचल में यूं तो अनेकों लोक उत्सव एवं लोक पर्व मनाए जाते हैं। लेकिन उन सबों में एक प्रमुख लोक पर्व है सामा-चकेवा। भाई बहन के कोमल और प्रगाढ़ रिश्ते को बेहद मासूम अभिव्यक्ति देने वाला यह लोक पर्व मिथिला संस्कृति के समृद्धता और कला का एक अंग है, जो सभी समुदायों के बीच व्याप्त बाधाओं को भी तोड़ता है।
बीते रात से शुरू इस लोक पर्व की समाप्ति कार्तिक पूर्णिमा की रात होगी। भाई-बहन के अनमोल प्यार के प्रतीक में महिलाएं पूर्णिमा की रात तक रोज सामा खेलेगी और अंतिम दिन चुगला का मुंह जलाने के साथ ही इसका समापन होगा। इस लोक उत्सव के दौरान बहनें सामा, चकेवा, चुगला, सतभईयां, टिहुली, कचबचिया, चिरौंता, हंस, सतभैंया, चुगला, बृंदावन सहित अन्य मूर्ति को बांस से बने चंगेरा में सजाकर पारंपरिक लोकगीतों के जरिये भाईयों के लिए मंगलकामना करती है।
हालांकि बदलते समय के साथ इसमें भी बदलाव देखा जाने लगा है। पहले महिलाएं अपने हाथ से ही मिट्टी से सामा-चकेवा बनाती थी। लेकिन अब ऐसा नहीं हो पाता है, बाजार में सामा-चकेवा की मूर्तियां सहज उपलब्ध है और महिलाएं इसे खरीदकर घर ले आती हैं। संध्या बेला में 'गाम के अधिकारी तोहे बड़का भैया हो, सामा खेले चलली भैया संग सहेली, साम चके अबिह हे जोतला खेत में बैसिह हे, भैया जीयो हो युग युग जीयो हो तथा चुगला करे चुगली बिलैया करे मियांऊं' सरीखे गीत एवं जुमले के साथ जब चुगला दहन करती है।
वह दृश्य मिथिलांचल की मनमोहक पावन संस्कृति की याद ताजा कर देती है। अन्य जगहों की तरह मिथिलांचल में भी तेजी से बढ़ रहे बाजारी और शहरीकरण के बावजूद यहां के लोग अपनी संस्कृति को अक्षुण्ण बनाये हुए हैं। मिथिला तथा कोसी के क्षेत्र में भातृ द्वितीया, रक्षाबंधन की तरह ही भाई बहन के प्रेम के प्रतीक लोक पर्व सामा चकेवा में लोक गीत रोज होता है।
देवोत्थान एकादशी की रात से प्रत्येक आंगन में नियमित रूप से महिलाएं समदाउन, ब्राह्मण गोसाउनि गीत, भजन आदि गाकर बनायी गयी मूर्तियों को ओस चटाती है। फिर कार्तिक पूर्णिमा की रात मिट्टी के बने पेटार में संदेश स्वरूप दही-चूडा भर सभी बहनें सामा चकेवा को अपने-अपने भाई के ठेहुना से फोड़वा कर श्रद्धा पूर्वक अपने खोईंछा में लेती है। बेटी के द्विरागमन की तरह समदाउन गाते हुए विसर्जन के लिए समूह में घर से निकलती है और नदी, तालाब के किनारे या जुताई किए गए खेत में चुगला के मुंह में आग लगाया जाता है।
मिट्टी तथा खर से बनाए वृंदावन में आग लगाकर बुझाती है और सामा-चकेवा सहित अन्य मूर्ति को पुन: अगले साल आने की कामना करते हुए विसर्जन किया जाता है। हालांकि अब सामा-चकेवा मिथिला से निकलकर दूर तक फैल चुका है। हिमालय की तलहट्टी से लेकर गंगासागर तट तक और चम्पारण से लेकर मालदा और दीनजापुर तक मनाया जाता है। दीनजापुर में बंगला भाषी होने के बाद भी वहां की महिलाएं एवं युवतियां सामा-चकेवा पर मैथिली गीत ही गाती हैं। जबकि चम्पारण में भोजपुरी और मैथिली मिश्रित सामा-चकेवा के गीत गाए जाते हैं। लेकिन खेल का रस्म सब जगह एक समान है।
कहानी है कि भगवान श्रीकृष्ण की पुत्री श्यामा और पुत्र शाम्ब के बीच अपार स्नेह था। कृष्ण की पुत्री श्यामा का विवाह ऋषि कुमार चारूदत्त से हुआ था। श्यामा ऋषि मुनियों की सेवा करने बराबर उनके आश्रमों में सखी डिहुली के साथ जाया करती थी। भगवान कृष्ण के दुष्ट स्वभाव के मंत्री चुरक को यह रास नहीं आया और उसने श्यामा के विरूद्ध राजा के कान भरना शुरू किया। क्रुद्ध होकर भगवान श्रीकृष्ण ने बगैर जांच पड़ताल के ही श्यामा को पक्षी बन जाने का श्राप दे दिया। जिसके बाद श्यामा का पति चारूदत्त भी भगवान महादेव की अर्चना कर उन्हें प्रसन्न करते हुए स्वयं भी पक्षी का रूप प्राप्त कर लिया।
श्यामा के भाई एवं भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र शाम्भ ने अपने बहन-बहनोई की इस दशा से मर्माहत होकर अपने पिता की ही आराधना शुरू कर दी। इससे प्रसन्न होकर श्रीकृष्ण ने वरदान मांगने को कहा तो उसने बहन-बहनोई को मानव रूप में वापस लाने का वरदान मांगा। तब श्रीकृष्ण ने पूरी सच्चाई का पता लगा और श्राप मुक्ति का उपाय बताते हुए कहा कि श्यामा रूपी सामा एवं चारूदत्त रूपी चकेवा की मूर्ति बनाकर उनके गीत गाये और चुरक की कारगुजारियों को उजागर करें तो वे दोनों फिर से अपने पुराने स्वरूप को प्राप्त कर सकेंगे।
तभी से बहनों द्वारा अपने-अपने भाई के दीर्घायु होने की कामना के लिए सामा-चकेवा पर्व मनाया जाता है। मिथिला में लोगों का मानना है कि चुगला ने ही कृष्ण से सामा के बारे में चुगलखोरी की थी। सामा खेलते समय महिलायें मैथिली लोक गीत गा कर आपस में हंसी मजाक भी करती हैं। भाभी ननद से और ननद भाभी से लोकगीत की ही भाषा मेंटल मजाक करती हैं। अंत में चुगलखोर चुगला का मुंह जलाया जाता है और सभी महिलायें लोकगीत गाती हुई अपने-अपने घर वापस आ जाती हैं। हिन्दुस्थान समाचार/सुरेन्द्र