अहमदाबाद : लंबी कानूनी प्रक्रिया के बाद 86 साल के बुजुर्ग पिता ने हासिल किया 38 साल से गायब बेटे का मृत प्रमाणपत्र

अहमदाबाद : लंबी कानूनी प्रक्रिया के बाद 86 साल के बुजुर्ग पिता ने हासिल किया 38 साल से गायब बेटे का मृत प्रमाणपत्र

सूरत की निचली अदालत ने मामला दर्ज कराने में देरी का कारण देकर इस मामले को रद्द कर चुकी थी, हाई कोर्ट ने बेटे के इंतजार को मानवीय संवेदना बताते हुए निचली अदालत के फैसले को बदला

ऐसा माना जाता है कि इस देश में कानूनी प्रक्रिया बहुत धीमी है। आपने शायद सनी देवल का एक डायलॉग तो याद नही होगा जिसमें वो कहते है 'तारीख पर तारीख!' इसी बात को प्रमाणित करने वाला एक अजीबो-गरीब मामला गुजरात के अहमदाबाद में सामने आया है, जहां एक 86 साल के बुजुर्ग ने अपने बेटे का मृत्यु प्रमाण पत्र बनवाने के लिए दशकों तक कानूनी लड़ाई लड़ी।

लंबे अरसे से चल रहे इस मामले में गुजरात हाई कोर्ट ने निचली अदालतों के फैसले को खारिज करते हुए मृत्यु प्रमाण पत्र बनाने का आदेश जारी कर दिया है। इस मामले में हाई कोर्ट ने टिप्पणी करते हुए यह भी कहा कि अदालतें इस तथ्य को समझने में चूक गईं कि अपने परिजन के गायब होने पर लंबे समय तक उसके लौट आने की इंतजार करना मानवीय प्रवृत्ति है।

मामले के बारे में बात करें तो गुजरात के अहमदाबाद के देवधर नाम के एक 86 साल के बुजुर्ग पिता ने

2012 में अपने बेटे के मृत्यु प्रमाण पत्र के लिए कोर्ट का रुख किया था। उनको

31 जनवरी 1984 को अचानक लापता हुए अपने बेटे जितेंद्र को मृत घोषित करने के लिए लंबी कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी। हुआ ऐसा कि बेटे के गायब होने के बाद परिवार ने समाचार पत्रों में विज्ञापन के माध्यम से सूचना दी। बेटे को हर तरीके से खोजने की कोशिश की, लेकिन काफी सालों के इंतजार के बाद भी जब जितेंद्र कभी वापस नहीं लौटा और ना ही उसकी कोई खबर मिली तो अतः पिता देवधर ने बेटे की मौत की प्रमाणिकता के लिए सूरत की अदालत का दरवाजा खटखटाया। यहां सुनावई के सूरत कोर्ट ने अपील करने में बहुत देर कर दी,कारण बताते हुए देवधर का मुकदमा खारिज कर दिया। बता दें कि देवधर का बेटा अपने कॉलेज की पढ़ाई के लिए सूरत में अपने चचेरे भाई के घर रहता था।
इस मामले पर सुनवाई करते हुए हाई कोर्ट ने देवधर की अपील को स्वीकार करते हुए सरकार को आदेश दिया कि इस मामले में वह जितेंद्र की मृत्यु को लापता होने के दिन से घोषित करें। हाई कोर्ट ने निचली अदालत पर टिप्पणी की कि वे इस तथ्य से चूक गए कि परिवार के सदस्य के लापता होने पर उसकी वापसी का इंतजार करना एक मानवीय प्रवृत्ति है। इसी बात के साथ गुजरात हाई कोर्ट ने निचली अदालतों के फैसले को इस टिप्पणी के साथ उलट दिया। हाई कोर्ट ने स्पष्ट किया कि ऐसे मामलों में समय सीमा का कानून लागू नहीं किया जा सकता है।