बौद्धमत ने विश्वधर्म का प्रतिष्ठित स्थान पा लिया

बौद्धमत ने विश्वधर्म का प्रतिष्ठित स्थान पा लिया

26 मई - भगवान गौतम गुद्ध के जन्म दिवस - बुद्ध पूर्ण‍िमा पर विशेष

(लेखक- हेमेन्द्र क्षीरसागर / ईएमएस)
महात्मा गौतम बुद्ध का जन्म लगभग 2500 वर्ष पूर्व (563 वर्ष ई.पू.), हिन्दू पंचांग के अनुसार वैशाख पूर्णिमा को (वर्तमान में दक्षिण मध्य नेपाल) की तराई में स्थित लुम्बिनी नामक वन में हुआ। माता माया देवी के गर्भ में आते ही राजपरिवार को सुख समृद्धि होने लगी, इसलिए उनका नाम ‘सिद्धार्थ’ रखा गया। पिता राजा शुद्धोधन ने राजकुमार का नामकरण समारोह आयोजित किया और आठ विद्वानों को उनका भविष्य जानने के लिए आमंत्रित किया। सभी विद्वानों ने एक सी भविष्यवाणी की ‘यह बालक महायोगी बनेगा। 
भगवान बुद्ध का विवाह यशोधरा से हुआ। बुद्ध को राज्य, पत्नी, पुत्र एवं अन्य परिवारी जन आदि अपनी साधना के मार्ग में अवरोध जैसे लगने लगे। तीस वर्ष की आयु में एक रात्रि के समय सभी को सोता हुआ छोड़कर सिद्धार्थ राजभवन को त्यागकर वन में चले गए। उन्होंने प्रतिज्ञा की कि जब तक जन्म तथा मृत्यु के रहस्य को नही समझ लूँगा तब तक इस कपिलवस्तु नगर में प्रवेश नही करूंगा। 6 वर्ष की कठोर साधना के बाद गया (बिहार) में एक पीपल के पेड़ के नीचे गहन समाधि के बाद उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ। सिद्धार्थ को अब बोध पूर्ण ज्ञान प्राप्त हुआ और इस वह ‘भगवान बुद्ध’ कहलाने लगे। अपने प्रथम उपदेश के लिए भगवान बुद्ध ने वाराणसी के निकट सारनाथ नामक स्थान को चुना। भगवान बुद्ध 44 वर्षों तक निरंतर उपदेश करते हुए वे भ्रमण करते रहे।
(Photo Credit : Wikimedia.org)
सैकड़ों वर्षों से व्याप्त रूढ़ियों, अंधविश्वासों, भेदभावों तथा अनेकानेक जड़ मान्यताओं को उन्होंने अमान्य कर दिया। व्यर्थाडम्बर से रहित साधना-पद्दति ने दुखों से मुक्त होने का एक नया एवं सरल मार्ग दिखलाया। देखते ही देखते बौद्धमत सम्पूर्ण भारत के साथ-साथ भारतवर्ष की सीमाओं को लांगते हुए नेपाल, तिब्बत, बर्मा, वियतनाम, चीन, जापान, मंगोलिया, लंका, कोरिया, जावा और सुमात्रा आदि में फ़ैल गया। उन्होंने विश्व के अनेक स्थानों के जनमानस को सुख-शांति का एक नया रास्ता खोल दिया। यह वह समय था जब हम कह सकते है कि बौद्धमत ने विश्वधर्म का प्रतिष्ठित स्थान पा लिया था।
हिन्दू समाज ने उनको अपने दशावतारों में स्थान दिया और वह भगवान बुद्ध कहलाने लगे। भारतीय धर्म, दर्शन, कला, साहित्य सृजन एवं शिक्षा व्यवस्था को नये-नये आयाम प्राप्त हुए।  उसी समय तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला, मगध के विश्‍वविद्यालयों  ने विश्व प्रसिद्धि प्राप्त की। सांस्कृतिक उत्थान का एक नया युग प्रारंभ हो गया। भगवान बुद्ध के विचारों के साथ-साथ ग्रन्थलेखन, मूर्तिकला, स्तूप निर्माण, मठ स्थापना, गुफाओं में भित्ति प्रतिमाओं आदि का विकास हुआ।
भगवान गौतम बुद्ध का कहना था कि इस संसार में कुछ भी स्थिर नही सभी कुछ नाशवान है। सभी प्रकार के प्राणी चाहे वे उत्तम, मध्य नीच जो भी हो सभी का विनाश सुनिश्चित है। भगवान बुद्ध स्वयं अपना संकल्प स्पष्ट करते है, मैंने जंगल में जाकर जो साधना की है उसका उद्देश्य यही है कि, वृद्धावस्था तथा मृत्यु के दुख को नष्ट कर सकूं। भगवान बुद्ध के सर्वत्यागी तपोमय जीवन तथा उनकी करुणा-पूर्ण वाणी का कुछ ऐसा अद्भुत प्रभाव हुआ कि देश के बड़े-बड़े सम्राट, जैसे कौशल देश के प्रसेनजित, मगध सम्राट अजातशत्रु, सम्राट अशोक, प्रतापी हूण राजा कनिष्क एवं सम्राट हर्षवर्धन आदि बुद्ध के विचार को स्वीकार कर अपनी समस्त राजशक्ति के आधार पर बौद्ध-दर्शन के विचार के प्रचार प्रसार में लग गए। 
नेपाल के मस्तांग में भगवान गौतम बुद्ध की प्रतिका का विहंगम दृश्य (Photo Credit : Wikimedia.org)
उन्होंने मनुष्य की मर्यादा को यह कहकर उपर उठाया कि कोई मनुष्य केवल किसी कुल में जन्म लेने से पूज्य नही होता। उच्चता नीचता, जन्म पर नही, कर्म पर अवलंबित है। जाति-प्रथा को शिथिल करके बुद्ध और उनकी परम्परा के अन्य संतों ने  भारत में वह अवस्था उत्पन्न की। जिसमें निर्गुणिया संतों का मत फूल-फल सका। भगवान बुद्ध को अतिरेक, हिंसा तथा युद्ध आदि कतई पसंद नही थे। सब मनुष्यों के अवयव समान ही होने से मनुष्यों में जातिभेद निश्चित नहीं किया जा सकता। परन्तु मनुष्य की जाति कर्म से निश्चित की जा सकती। बुद्ध का यह उपदेश सुनकर वशि‍ष्ठ और भारद्वाज उनके उपासक बन गए।
भगवान बुद्ध ने जन्म से किसी भी प्रकार के जाति एवं वर्ण-भेद को अपने जीवन में स्थान नही दिया। भगवान् बुद्ध का मानना है कि इस संसार में वैर कभी भी वैर से शांत नहीं होता है, वैर तो मैत्री से ही शांत होता हैं– यही सनातन धर्म है”। बौद्ध धर्म में चार स्थान अत्यंत पवित्र माने जाते हैं– पहला कपिलवस्तु, जहाँ बुद्ध का जन्म हुआ। दूसरा– बौद्ध गया, जहाँ बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ। तीसरा- सारनाथ, जहाँ बुद्ध ने पहला प्रवचन दिया और चौथा– कुशीनगर, जहाँ अस्सी वर्ष की आयु में उन्होंने अपना अंतिम सन्देश दिया और वहीं एक वृक्ष के नीचे अपना शरीर त्याग दिया।