सूरत : ग्रिश्मा के हत्यारे को मनुस्मृति का श्लोक सूनाकर न्यायाधीश ने सजा सुनाई
By Loktej
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आरोपी फेनिल को मौत की सजा सूनाने से पहले न्यायाधिश ने महाभारत काल का श्लोक सूनाकर सजा का अर्थ बताया
जघन्य अपराधियों के लिए दंड एक क्रूर जानवर के समान बदसूरत होना चाहिए
सूरत में ग्रिशमा वेकारिया हत्याकांड के आरोपी फेनिल गोयानी को मौत की सजा सुनाए जाने से पहले न्यायाधीश विमल के. व्यास ने मनुस्मृति का एक श्लोक सुनाया। यह श्लोक था ... यात्रा श्याम: लोहिताक्ष: डंडा: चरती पापहा प्रजा: तत्र न मुहंती नेता चेत साधु पश्यति। इसका अर्थ है न्यायशास्त्र और दंड के विधान के साथ जुडा हुआ है। यह श्लोक इस बात का उदाहरण देता है कि कैसे प्राचीन काल में न्याय व्यवस्था द्वारा समाज को सुचारू रूप से चलाया जाता था। महाभारत काल में भी युधिष्ठिर उसी दंडविधान का हवाला देकर युवराज बने थे।
लोगों की भलाई का मूल सिद्धांत श्लोक में निहित है। यात्रा श्यामो लोहितक्षो दंडशचरती पापहा। प्रजास्तात्र न मुहंती नेता चेतसाधु पश्यति। यदि आप इस श्लोक के शब्दार्थ को देखें, तो इसका सीधा अर्थ यह हो सकता है कि जहां श्याम वर्ण और लाल आंखों वाले तथा पापों (पापियों) के विनाशक को 'दंड' का विचरण होता है और जहां नियम को बनाए रखने वाले सोच-समझकर सजा देते हैं। वहा लोग कभी परेशान नहीं होंगे। यह श्लोक पापियों को उचित दण्ड और सजा देने की व्यवस्था पर प्रकाश डालता है जो न्याय व्यवस्था में लोगों की आस्था को स्थापित करता है।
जिसके आधार पर युधिष्ठिर ने दुर्योधन को हराया और युवराज बने। महाभारत काल में भी मनुस्मृति की दंडविधान ने कई अवसरों पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। मनुस्मृति के अनुसार कुरुसभा में जब दुर्योधन और युधिष्ठिर में से युवराज किसे बनाना है, इस पर फैसला होना था, तो दोनों को हत्या के चार आरोपियों को दोषी ठहराने का मौका दिया गया था। दुर्योधन ने सीधे चारों को मौत की सजा सुनाई, लेकिन युधिष्ठिर ने मनुस्मृति की दंड संहिता का हवाला देते हुए उन्हें जाति और अपराध की गंभीरता के अनुसार दंडित किया जिससे उन्हे युवराज घोषित किया गया।
महाभारत काल का दंडविधान आधारित सार। मनुस्मृति में उल्लेख है कि महाभारत काल में दंडविधान को सर्वाधिक तटस्थ और प्रभावशाली माना जाता था। सूरत के ग्रिशमा हत्याकांड में जज विमल के. व्यास द्वारा उद्धृत श्लोक का उदाहरण दिया था। जिसका मार्मिक अर्थ दंड संहिता के माध्यम से समाज में एक उचित व्यवस्था स्थापित करना है। इस श्लोक के अनुसार सजा कोई मूर्तिमंत वस्तु नहीं है, बल्कि यह एक मूल्य और एक अमूर्त अवधारणा है, लेकिन शास्त्रों में इसे काली (डरावनी) और लाल-लाल आंखों वाले भौतिक जीव के रूप में वर्णित किया गया है। यह सजा का एक भयानक रूप पेश करने का एक तरीका है, जिसे शाब्दिक रूप से लेने की आवश्यकता नहीं है।
दंड एक क्रूर, भयावह जानवर की तरह होना चाहिए। जिसका अर्थ यह है कि सजा उतनी ही भयावह है, जितनी आपके सामने खड़े शिकारी जानवर के रूप में। सजा का विचार डराने वाला होना चाहिए और डराने वाला क्रूर होने पर ही उसके डर से समाज में व्यवस्था सुचारू होगी। जिसे दण्ड दिया जाना है, उस पर दया नहीं की जा सकती, क्योंकि उसका अपराध बहुत जघन्य है। लोग निर्भय होकर केवल वहीं रह सकते हैं जहां दंडात्मक न्यायाधीश द्वारा अपराधी को ऐसी सजा का भय दिखाया जाएगा।
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