गुजरात : भेड़-बकरी नहीं अब इस प्रजाति के ऊंटों की बदौलत भविष्य संवार रहे रण के कच्छी बाशिंदे!

गुजरात : भेड़-बकरी नहीं अब इस प्रजाति के ऊंटों की बदौलत भविष्य संवार रहे रण के कच्छी बाशिंदे!

ऊंटों की एक ऐसी प्रजाति भी है जो रेत के साथ-साथ उफनते समंदर में भी कर सकती है आसानी से यात्रा

दो दशकों में परिवहन, पर्यटन और दुग्ध उत्पादन के क्षेत्र में आये सकारात्मक बदलावों के बीच ऐसा माना जा रहा है कि भविष्य में ऊंटपालन का चलन फिर से सामने आएगा। हालांकि वर्तमान परिदृश्य पर नजर डाले तो पशुपालन केंद्र 2019 तक ऊंटों की आबादी में गिरावट देख रहा है। निर्माण सामग्री से लेकर भारी माल के परिवहन में ऊंटों के उपयोग के बदले मोटर चालित वाहनों का उपयोग किया जा रहा है। इस मामले में जहाँ देशभर में 75 ऊँटों के उपयोग में कमी देखी गयी तो देश में ऊंट का सबसे बड़ा केंद्र मने जाने वाले राजस्थान में भी 37 फीसदी की गिरावट देखी गई है।
आपको बता दें कि 2019-20 की पशुधन गणना के अनुसार देश में 90% ऊंट राजस्थान में हैं। जिनकी संख्या 2,12,739 है। जो 2012 में बढ़कर 3,27,620 हो गई। ये आंकड़े उस वक्त लोकसभा में पेश किए गए थे। गुजरात ऊंट पालन में राजस्थान के बाद दूसरे स्थान पर है और 2012 और 2019 की तुलना में इसमें 9।19 प्रतिशत की गिरावट देखी गई है। इस जानवर की संख्या बढोत्तरी निश्चित है और इसके पशुपालन व्यवसाय के कारण इसकी क्षमता से इंकार नहीं किया जा सकता है। दुधारू पशुओं के लिए गाय-भैंस के अलावा ऊंट पशुपालन का चलन भी बदल रहा है। इस बीच, विसंगति यह है कि गुजरात के अन्य जिलों में ऊंटों की संख्या में कमी आई है और कच्छ जैसे सीमावर्ती और छेवाड़ा जिलों में ऊंटों की संख्या में वृद्धि हुई है। इसका सबसे स्पष्ट कारण स्वस्थ के लिए उपयोगी ऊंटनी के दूध के लिए किया जाने वाला पशुपालन है।
जानकारी के अनुसार बनासकांठा में प्रतिदिन लगभग 2500 लीटर ऊंटनी दूध और कच्छ में 3000 लीटर दूध प्रति लीटर एकत्रकर डेयरी तक पहुंचता है। डेयरी व्यवसाय ने ऊंट का दूध लेकर आइसक्रीम उत्पाद बनाना शुरू कर दिया है। ऐसे में पशुपालक गाय और भैंस के साथ साथ ऊंटों को पालने की सोच रहे हैं। गुजरात के बनासकांठा, पाटन, मेहसाणा, साबरकांठा, भरूच, राजकोट के कुछ गांव, भावनगर, जामनगर, देवभूमि द्वारिका में खराई और कच्छी ऊंट पाए जाते हैं। इसके अलावा ऊंटों की एक ऐसी प्रजाति भी है जो रेत के साथ-साथ उफनते समंदर में भी इतनी आसानी से यात्रा कर सकती है। खराई प्रजाति के ये ऊंट गुजरात में पाए जाते हैं। खराई यानी खारे पानी का ऊंट। तैरने वाले इन ऊंटों को गुजरात के कच्छ क्षेत्र में आसानी से देखा जा सकता है। इनका खाना समुद्र के आसपास उगने वाले खर-पतवार और मैंग्रोव हैं। मैंग्रोव से तात्पर्य उन पेड़-पौधों से हैं जो तटीय क्षेत्र में पाए जाते हैं और खारे पानी में भी जीवित रहते हैं। बारिश के मौसम में मैंग्रोव के टापू तट से दूर हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में हर वर्ष इस मौसम में ऊंट, तैरकर टापू पर जाते हैं और वहीं रहते हैं। इन ऊंटों के साथ इनके पालक भी वही रहते हैं और ऊंटनी के दूध पीकर अपना पेट भरते हैं।
मैंग्रोव के जंगल पर ऊंट साल में आठ महीने निर्भर रहते हैं। खाने को समुद्र के किनारे हरे पत्ते और पीने को बारिश का जमा हुआ पानी मिल जाता है। गर्मियों में ये ऊंट अपने पालक के साथ गावों की तरफ लौटते हैं जहां उनके खाने-पीने की व्यवस्था की जाती है। लगभग 2,000 खराई ऊंट कच्छ जिले में रहते हैं, जहां कई द्वीप हैं तथा बड़े इलाक़े में हरियाली फैली हुई है। लेकिन किसी ज़माने में संपन्न वन अब तेज़ी से लुप्त होते जा रहे हैं, जिससे बड़े निर्माताओं, या उद्योगों के लिए वहां नमक बनाने का रास्ता साफ़ हो रहा है। सरकार ने बड़े चरागाहों को संरक्षित क्षेत्र के नाम पर बंद कर दिया है, या वहां आक्रामक गांडो बावर (प्रोसोपिस जुलिफोरा) प्रजाति के पौधे उग आए हैं। इस कारण इस विस्तार को अभयारण्य घोषित करने का भी प्रयास किया गया है।
शोधकर्ताओं का मानना है कि ईंधन की कीमतों में लगातार वृद्धि से ग्रामीण क्षेत्रों में ऊंट पालन और परिवहन सहित पशुधन में बदलाव हो सकता है। व्यापार के साथ-साथ परिवहन और खेती में उपयोगी होने से भी भविष्य में सुधार हो सकता है।