आवारा पशुओं को लेकर दुविधा: ‘‘मानवीय’’ तरीके खोजने के लिए जारी है संघर्ष
नयी दिल्ली, आठ नवंबर (भाषा) दिल्ली में आवारा पशुओं से निपटने के मानवीय तरीकों पर दुविधा कोई नई बात नहीं है और शहर में ब्रिटिश प्रशासकों को भी इसी समस्या से जूझना पड़ा था। तब भी, उन्होंने इस समस्या से निपटने के तरीकों पर बहस की थी, और कुछ अधिकारियों ने तो जानवरों को ‘‘सबसे पीड़ारहित’’ तरीके से मारने के तरीके तक सुझाए थे।
तब से आठ दशक के बाद देश की सर्वोच्च अदालत के सामने भी यह मुद्दा है। शुक्रवार को, शीर्ष अदालत ने संस्थागत क्षेत्रों में कुत्तों के काटने की घटनाओं में ‘खतरनाक तरीके से वृद्धि’ पर ध्यान दिया और आवारा कुत्तों को उचित नसबंदी और टीकाकरण के बाद तुरंत निर्दिष्ट आश्रयों में स्थानांतरित करने का निर्देश दिया।
दिल्ली अभिलेखागार में संरक्षित 1946-47 के अभिलेखों से पता चलता है कि तब भी, अधिकारियों ने आवारा कुत्तों की आबादी को नियंत्रित करने के ‘मानवीय’ तरीकों पर चर्चा की थी।
ग्यारह अप्रैल, 1946 को लिखे एक पत्र में, दिल्ली के मुख्य आयुक्त ने उपायुक्त को आवारा कुत्तों को मारने के लिए स्ट्राइकिनिन जहर के इस्तेमाल पर अपनी आपत्ति व्यक्त करते हुए इसे ‘‘अमानवीय’’ बताया था।
उन्होंने जहर को ‘‘सबसे आपत्तिजनक’’ और ‘‘किसी भी तरह से दर्दरहित मौत नहीं’’ कहा था। उन्होंने कहा कि जानवरों को मरने से पहले लगभग 20 मिनट तक दर्द सहना पड़ता है। उन्होंने अधिकारियों से ‘‘कोई दर्दरहित तरीका’’ अपनाने का अनुरोध किया और इसमें क्लोरोफॉर्म या बिजली के झटके देने का सुझाव दिया।
पत्र के बाद, उपायुक्त ने 29 अप्रैल, 1946 को सिविल पशु चिकित्सालय का निरीक्षण किया और बिजली के झटके को ‘‘आदर्श तरीका’’ बताया क्योंकि इससे तुरंत मौत हो जाती है। पीटीआई के पास मौजूद रिकॉर्ड से यह जानकारी सामने आई है।
दस्तावेजों के अनुसार, उस समय अस्पताल हाइड्रोसायनिक एसिड का इस्तेमाल कर रहा था, जिससे जानवर कुछ ही मिनटों में ‘व्यावहारिक रूप से नगण्य पीड़ा’ के साथ मर जाते थे।
मुख्य आयुक्त ने सूअरों को मारने के बारे में भी इसी तरह की चिंता जताई थी, और कहा कि उनके दिल या गर्दन की नसों में छुरा घोंपा गया था और वे ‘दर्द से जोर से चीख रहे थे’। उन्होंने आग्रह किया कि ‘कुछ और मानवीय उपाय होने चाहिए’।
रिकॉर्ड के अनुसार, मई 1946 में, दिल्ली के स्वास्थ्य अधिकारियों ने तत्कालीन बंबई और मद्रास में इस्तेमाल की जाने वाली विधियों का अध्ययन करने के लिए वहां का दौरा किया। उन्होंने यह भी बताया कि बिजली का झटका देना सबसे ‘प्रभावी और मानवीय’ विकल्प था।
इसके अनुसार, ‘‘मार्च 1947 तक, दिल्ली प्रांत के मुख्य स्वास्थ्य अधिकारी के कार्यालय ने बताया कि शहर के ग्रामीण इलाकों में 648 आवारा कुत्तों को मार डाला गया था, जिनमें खेड़ा खुर्द गांव में 105 कुत्ते शामिल थे।’’
इस समस्या से निपटने का ‘करुणापूर्ण’ तरीका क्या है और ‘क्रूरतापूर्ण’ तरीका क्या माना जाएगा, इस बहस ने आज भी दिल्ली के प्रशासकों को परेशान कर रखा है।
नसबंदी और पुनर्वास के लिए उच्चतम न्यायालय का दृष्टिकोण इस समस्या से निपटने में एक ‘मानवीय’ दृष्टिकोण प्रतीत हो सकता है, वहीं पशु अधिकार कार्यकर्ताओं ने इसका कड़ा विरोध किया है और इस कदम को ‘क्रूरतापूर्ण’ एवं ‘वास्तविकता से अलग’ बताया है।
जानवरों के प्रति करुणा के साथ जन सुरक्षा का संतुलन कैसे बनाया जाए, यह सवाल आज भी प्रासंगिक है।
