1972 का गुफा प्रयोग: मिशेल सिफ्रे ने खोजा मानव शरीर की प्राकृतिक लय का रहस्य
नई दिल्ली, 11 अप्रैल 2025 - समय की हमारी समझ को चुनौती देने वाला एक हैरान करने वाला वैज्ञानिक प्रयोग आज फिर से चर्चा में है। 1972 में, फ्रांसीसी वैज्ञानिक मिशेल सिफ्रे ने टेक्सास की एक गहरी गुफा में 180 दिनों तक पूर्ण एकांत में रहकर मानव शरीर की जैविक घड़ी (बायोलॉजिकल क्लॉक) पर एक अभूतपूर्व अध्ययन किया। इस प्रयोग ने यह साबित किया कि हमारी 24 घंटे की दिनचर्या शायद हमारी प्राकृतिक जैविक लय से मेल नहीं खाती, और इसके गहरे प्रभाव हमारी नींद, उत्पादकता और मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ सकते हैं।
मिशेल सिफ्रे, जो एक भूविज्ञानी (जियोलॉजिस्ट) थे, ने इस प्रयोग के लिए टेक्सास की मिडनाइट गुफा को चुना, जो जमीन से 440 फीट नीचे थी। उन्होंने खुद को हर तरह के बाहरी समय संकेतों से अलग कर लिया—कोई घड़ी नहीं, कोई सूरज की रोशनी नहीं, और न ही किसी इंसान से संपर्क। उनका मकसद यह समझना था कि बिना किसी बाहरी संकेत के मानव शरीर की प्राकृतिक लय कैसे काम करती है।
प्रयोग के दौरान, सिफ्रे ने अपने शरीर की गतिविधियों को रिकॉर्ड करने के लिए इलेक्ट्रोड्स का इस्तेमाल किया, जो उनके हृदय, मस्तिष्क और मांसपेशियों की गतिविधियों को मॉनिटर करते थे। शुरुआत में सब कुछ सामान्य लगा, लेकिन धीरे-धीरे उनके शरीर की लय बदलने लगी। बिना किसी बाहरी संकेत के, उनकी 24 घंटे की दिनचर्या पूरी तरह से गायब हो गई। इसके बजाय, उनका शरीर एक 48 घंटे की लय में ढल गया—36 घंटे जागने और 12 घंटे गहरी नींद का चक्र।
इस खोज ने वैज्ञानिक समुदाय को चौंका दिया। सिफ्रे का यह प्रयोग मानव क्रोनोबायोलॉजी (समय-जैविकी) के क्षेत्र की नींव साबित हुआ, जो यह अध्ययन करता है कि जैविक प्रक्रियाएं समय के साथ कैसे संचालित होती हैं। उनकी खोज से पता चला कि इंसान स्वाभाविक रूप से 24 घंटे के चक्र से बंधे नहीं हैं। बल्कि, जब सूरज की रोशनी और घड़ियों जैसे बाहरी संकेत हटा दिए जाते हैं, तो हमारा शरीर अपनी प्राकृतिक लय में चला जाता है, जो 48 घंटे की हो सकती है।
इस प्रयोग ने कई बड़े सवाल खड़े किए। क्या हमारी 24 घंटे की दिनचर्या कृत्रिम है? क्या यह हमारे शरीर की प्राकृतिक लय के खिलाफ है? सिफ्रे के निष्कर्षों ने सुझाव दिया कि 9 से 5 की नौकरी और सख्त समय-सारिणी हमारी जैविक जरूरतों के विपरीत हो सकती हैं, जिसके कारण नींद की कमी, तनाव, और मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं जैसे चिंता और अवसाद बढ़ सकते हैं।
नासा और फ्रांसीसी सेना ने भी सिफ्रे के इस काम में गहरी रुचि दिखाई। नासा ने अंतरिक्ष यात्रियों के लिए समय और नींद के पैटर्न को समझने के लिए इस अध्ययन का उपयोग किया, क्योंकि अंतरिक्ष में सूरज की रोशनी और समय के संकेत उपलब्ध नहीं होते। वहीं, फ्रांसीसी सेना ने सैनिकों की लंबे समय तक एकांत में रहने की क्षमता को परखने के लिए इसकी मदद ली।
वैज्ञानिकों का कहना है कि सूरज की रोशनी की कमी और कृत्रिम रोशनी का अत्यधिक उपयोग हमारी सर्कैडियन रिदम (दैनिक जैविक लय) को बाधित कर सकता है। हार्वर्ड गजट (2024) के एक लेख के अनुसार, बाहरी संकेतों के बिना हमारी सर्कैडियन रिदम धीरे-धीरे बदलने लगती है, और साइंसअलर्ट (2019) की एक रिपोर्ट में बताया गया कि रोशनी की कमी नींद के चक्र को प्रभावित करती है, जिससे अनिद्रा और थकान जैसी समस्याएं हो सकती हैं।
सिफ्रे का यह प्रयोग आज भी प्रासंगिक है। यह हमें सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हमें अपनी जीवनशैली को बदलने की जरूरत है। क्या हमें अपने शरीर की प्राकृतिक लय के अनुसार जीना चाहिए, न कि घड़ियों और कैलेंडर के हिसाब से? विशेषज्ञों का मानना है कि अगर हम अपनी जैविक लय का सम्मान करें—जैसे लंबे समय तक केंद्रित काम करना और फिर गहरी नींद लेना—तो हमारी उत्पादकता, नींद की गुणवत्ता और मानसिक स्वास्थ्य में सुधार हो सकता है।
मिशेल सिफ्रे का यह गुफा प्रयोग न केवल समय की हमारी समझ को चुनौती देता है, बल्कि यह भी सवाल उठाता है कि क्या हम आधुनिक जीवन की सुविधाओं के लिए अपनी सेहत को दांव पर लगा रहे हैं। यह हमें एक नई राह दिखाता है—अपने शरीर की सुनने की, और अपनी प्राकृतिक लय के साथ जीने की।