अपराजेय है कालिंजर का किला, चढ़ाई में यहीं हुई थी शेरशाह की मौत

इतिहास के पन्नों में 22 मई

अपराजेय है कालिंजर का किला, चढ़ाई में यहीं हुई थी शेरशाह की मौत

देश-दुनिया के इतिहास में 22 मई की तारीख तमाम अहम वजह से दर्ज है। इस तारीख का महत्व उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में स्थित कालिंजर दुर्ग से है। कालिंजर का यह किला समुद्र की सतह से 1230 फीट की ऊंचाई पर बना हुआ है। इतिहासकारों का मानना है कि शेरशाह सूरी ने बीर सिंह बुंदेला को पकड़ने के लिए वर्ष 1544 में इस किले पर घेरा डाला था। तब इस किले पर कालिंजर के राजा कीरत सिंह रहते थे। उन्होंने बुंदेला को सौंपने से इनकार कर दिया था। शेरशाह ने किले को घेर कर सुरंगें और ऊंची मीनारें बनवाना शुरू कर दीं। जब सारी तैयारी पूरी हो गई तो तय हुआ कि 22 मई, 1545 को किले पर हमला बोला जाएगा। हमले में हिस्सा लेने के लिए शेरशाह खुद आगे आ गया।

कुछ इतिहासकार मानते हैं कि शेरशाह ने बम के पलीते में आग लगा कर सैनिकों को उन्हें किले के अंदर फेंकने का आदेश दिया। अचानक एक बम किले की दीवार से टकरा कर वापस लौटा और उस स्थान पर फटा जहां बाकी बम और पटाखे रखे हुए थे। इससे जोरदार विस्फोट हुआ शेरशाह बुरी तरह झुलस गया। हालांकि उसके सैनिक किले में घुसने में कामयाब हो गए पर शेरशाह ने दम तोड़ दिया। कहते हैं कि शेरशाह की मौत के पांचवें दिन उसका दूसरे नंबर का बेटा जलाल खां कालिंजर पहुंचा। उसे हिंदुस्तान के बादशाह की गद्दी पर बैठाया गया। शेरशाह को कालिंजर के पास लालगढ़ में दफना दिया गया। बाद में उसके पार्थिव शरीर को वहां से निकाल कर सासाराम ले जाया गया। वहां शेरशाह का मकबरा बनवाया गया।

जिला बांदा की वेबसाइट इसे अपराजेय किला बताया गया है। इसमें उपलब्ध विवरण के अनुसार, कालिंजर पहाड़ी की चोटी पर स्थित इस किले में अनेक स्मारकों और मूर्तियों का खजाना है। इन चीजों से इतिहास के विभिन्न पहलुओं का पता चलता है। चंदेलों ने इस किले का निर्माण कराया। यह किला चंदेल वंश के शासनकाल की भव्य वास्तुकला का उदाहरण है। इस किले के अंदर कई भवन और मंदिर हैं। इस विशाल किले में भव्य महल और छतरियां हैं, जिन पर बारीक डिजाइन और नक्काशी की गई है। किला हिन्दू भगवान शिव का निवास स्थान माना जाता है। किले में नीलकंठ महादेव का एक अनोखा मंदिर भी है।

इतिहास के उतार-चढ़ावों का प्रत्यक्ष गवाह बांदा जनपद का कालिंजर किला हर युग में विद्यमान रहा है। इस किले के नाम अवश्य बदलते गए हैं। इसने सतयुग में कीर्तिनगर, त्रेतायुग में मध्यगढ़, द्वापर युग में सिंहलगढ़ और कलियुग में कालिंजर के नाम से ख्याति पाई है। कालिंजर का अपराजेय किला प्राचीन काल में जेजाकभुक्ति साम्राज्य के अधीन था। जब चंदेल शासक आए तो इस पर महमूद गजनवी, कुतुबुद्दीन ऐबक और हुमायूं ने आक्रमण कर इसे जीतना चाहा, पर कामयाब नहीं हो पाए। अंत में अकबर ने 1569 ईस्वी में यह किला जीतकर बीरबल को उपहार स्वरूप दे दिया। बीरबल के बाद यह किला बुंदेल राजा छत्रसाल के अधीन हो गया। इनके बाद किले पर पन्ना के हरदेव शाह का कब्जा हो गया। 1812 ईस्वी में यह किला अंग्रेजों के अधीन हो गया।

कालिंजर किले और आसपास के मुख्य आकर्षणों में नीलकंठ मंदिर है। इसे चंदेल शासक परमादित्य देव ने बनवाया था। किले में स्थित इस मंदिर में 18 भुजा वाली विशालकाय प्रतिमा के अलावा रखा शिवलिंग नीले पत्थर का है। मंदिर के रास्ते पर भगवान शिव, काल भैरव, गणेश और हनुमान की प्रतिमाएं पत्थरों पर उकेरी गई हैं। इतिहासवेत्ता कहते हैं कि यहां शिव ने समुद्र मंथन के बाद निकले विष का पान किया था। शिवलिंग की खासियत यह है कि उससे पानी रिसता रहता है। इसके अलावा सीता सेज, पाताल गंगा, पांडव कुंड, बुड्ढा-बुड्ढी ताल, भगवान सेज, भैरव कुंड, मृगधारा, कोटितीर्थ, चौबे महल, जुझौतिया बस्ती, शाही मस्जिद, मूर्ति संग्रहालय, वाऊचोप मकबरा, रामकटोरा ताल, भरचाचर, मजार ताल, राठौर महल, रानीनिवास, ठा. मतोला सिंह संग्रहालय, बेलताल, सगरा बांध, शेरशाह सूरी का मकबरा व हुमायूं की छावनी आदि हैं।

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