दीपोत्सव में मनुष्यत्व ही प्रकट होना चाहिए.. : रविंद्र पारेख

दीपोत्सव में मनुष्यत्व ही प्रकट होना चाहिए.. : रविंद्र पारेख

आज से प्रारंभ हो रहे नूतन वर्ष की सभी स्वजनों को अनंत शुभकामनाएं । गत वर्ष में अनेक घटनाएं  घटी और उसका अच्छा बुरा प्रभाव भी हम पर पड़ा। हमने कुछ पाया, तो कुछ खोया भी ! मन में खुशी की लहर दौड़ी, तो कहीं पर जलन भी उठीं ! सच तो यह है कि जलना ही किसी न किसी रूप में हमारे  साथ चलता रहा है। यह जलना हमारा चालक बल बनता है, तो कभी यह हम को राख में भी परिवर्तित कर देता है। सच पूछो तो हम सूक्ष्म या स्थूल रूप से कहीं न कहीं अग्नि स्वरूप ही रहें हैं, और फिर आखरी रूप में अग्नि को ही समर्पित हो जाते हैं।


हम दिवाली में दिये जलाते हैं। वह इस लिए की दीपोत्सव प्रकाश का पर्व है। बीतते वर्ष को और आते हुए वर्ष को हम प्रकाश से संमार्जित करना चाहते हैं। सामान्य तया हमारा पथ सदा प्रशस्त हो ऐसी मनसा हममें बनी रहती हैं। यही कारण है कि क्रिसमस में हम मोमबत्तियाँ जलाते हैं, और आते हुए वर्ष का प्रकाश से सत्कार करते है। वैसे मोमबत्ती जलाकर भी हम प्रशस्त तो अपना ही मार्ग करना चाहते हैं। दोनों त्यौहार वर्ष के आखिर में आते हैं और दोनों में प्रकाश का अपना ही महत्व है। देखा न ! यहाँ भी जलना ही सामने आता है। रूप शायद बदलता हैं, पर जलना ही केंद्र में हैं। जलने का मतलब जलाने तक ही सीमित नहीं है। ऐसा भी नहीं की जलना हर वक्त राख ही करें। दिल जलता है, तो रौशनी नहीं होती, पर जलना भी नहीं होता, ऐसा कोई नहीं कहेगा। 


दिया खुद जलता है, पर दूसरों को प्रकाश देता है। मोमबत्ती पिघलती है, पर वह बहुत कुछ बातें प्रकाश में भी लाती है। यह भी है कि दिया आग का कारण बन सकता है। आग में प्रकाश के साथ दाहकता भी होती है, इन दोनों से संभव तो विनाश ही होता है, जो सृजन से विपरीत हैं। जहां तक हो सके हम दाहकता से दूर रहते हैं। सूर्य को हमने भगवान माना है, फिर भी उसे हम घर में नहीं लाते, घर के लिए  तो दिया या मोमबत्ती ही पर्याप्त है। 


जरा सोचने पर हम पाते हैं कि अग्नि का भी संयत रूप ही हमे अपेक्षित है। अगर हमे मंद और स्निग्ध रूप चाहिए तो अग्नि को हम दिये पर रख देते हैं। किसी देवी देवता कि प्रार्थना करनी है तो हम अग्नि को आरती पर धर देते हैं, खाना पकाना है तो अग्नि को चूल्हे में छोड़ देते हैं। यही अग्नि घर को जलाकर राख भी कर देता है। अगर युद्ध की ललक बढ़ती है तो मिसाइल्स दाग देते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि दिये से ले कर बम तक में अग्नि ही व्याप्त है, यह हम पर निर्भर करता है कि हम दिये से संतुष्ट होना चाहते हैं या धमाकों में ही हमे जीवन दिखता हैं? 


गौर से देखेंगे तो मनुष्य भी अग्नि का ही विभिन्न रूप प्रतीत होता है। कोई मनुष्य दिये जैसा शांत और सौम्य हैं, तो किसी में आरती जैसी पवित्रता और स्निग्धता हैं। किसी में चूल्हे जैसी आग पनपती है, तो किसी में मिसाइल-सी आक्रमकता ठूँसी हुईं हैं। किसी को राख में ही साँसे सुनाई पड़ती हैं। यह हम पर है कि हम स्वयं को दीप-सा प्रकट करना चाहते हैं, या बम-सा आतंक फैलाना ही हमारा एक मात्र लक्ष्य है। आँखें तो रोयेंगी ही, हम तय कर लें, हम पीड़ा बहाना चाहते हैं या हर्ष को प्रवाहित करना चाहते हैं।