गुजरात : यहां मन्नत पूरी करने अंगारों पर चलते हैं श्रद्धालु

गुजरात : यहां मन्नत पूरी करने अंगारों पर चलते हैं श्रद्धालु

यहाँ के लोगों के लिए बहुत विशेष है होली-धुलेटी का पर्व और इसमें लगने वाले मेले

पंचमहल जिले में धुलेती के दिन कोरोना की वजह से लगातार दो साल से टल रहा पारंपरिक भाटीगल चुल मेला शुरू हो गया है। आखिरकार दो साल बाद शुरू हुए मेले के कारण स्थानीय आदिवासियों में जबरदस्त उत्साह देखने को मिल रहा है। इनमें से अधिकतर मेले आसपास के निवासियों की आस्था और विश्वास से जुड़े हैं। मोरवा हदफ के खाबड़ा गांव में सालों से चुल मेला लगता रहा है। जिसमें आसपास के 15 गांवों से बड़ी संख्या में लोग मेले का आनंद लेने आते हैं। मेले की खासियत यह है कि होली के त्योहार से पहले होलिका दहन स्थल पर डंडे बरसाए जाते हैं। इस स्थान पर एक बड़ा पेड़ है, जिस पर भृंगों (भवरों) के आने से छत्ता बनता है और ये भृंग होली जलाने के बाद लौटते हैं। यहां के निवासी किसी दैवीय शक्ति के आगमन में विश्वास करते हैं। ये भृंग होली की तपिश में भी छत्ते में रहते हैं और किसी को नुकसान नहीं पहुंचाते हैं। आमतौर पर भृंगों या मधुमक्खियों को भगाने के लिए धुएँ का उपयोग किया जाता है। जिसका यहां कोई असर नहीं है।
साथ ही यहां एक गड्ढा खोदा गया है। जिसमें श्रद्धालु पैर रख कर अनुष्ठान करते हैं। त्वचा रोग या अन्य बीमारियों से जूझ रहे श्रद्धालुओं का विश्वास है कि यहाँ परिक्रमा करने और होली के दिन दर्शन करने से उनको राहत मिलती है। यहां दो विश्वासी एक ठंडा चुल और एक गर्म चुल लेते हैं और उसी के अनुसार पूरा करते हैं। ठंडी चुल में नारियल और अगरबत्ती लेकर उसकी परिक्रमा करनी होती है। जबकि दोपहर में एक गर्म चूल्हा जिसमें जलता हुआ कोयला रखा जाता है और उसमें नारियल की भूसी जला दी जाती है। इसमें श्रद्धालु उस पर अपने पैर रख परिक्रमा करते हैं। इस कार्यक्रम में छोटे बच्चे, महिलाएं और युवा सभी शामिल हैं। जलते आग पर चलने पर भी आज तक किसी के जलने की घटना सामने नहीं आई है। ना ही ऐसा हुआ कि जिसने जिस काम के लिए मान्यता मानी हो वो पूरा ना हुआ हो।
उल्लेखनीय है कि दाहोज जनजाति की होली लगभग एक माह तक मनाई जाती है। पूनम से डंडा रोपानी से लेकर फागनी पूनम तक आदिवासी होली मनाते हैं। चुलना मेला भी यहां का प्रमुख आकर्षण है। लोग इस मेले में आते हैं और परंपरा के अनुसार अपनी बाधाओं को पूरा करते हैं। यहां होली की तरह ही आग जलाई जाती है और उस पर चलने की परंपरा है, जिसके बारे में माना जाता है कि यह आदिवासी लोगों को रोग मुक्त रखती है। उनका मानना है कि इसके पीछे कोई दैवीय शक्ति है। होली के बाद ही जनजातियां शुभ कार्य शुरू करती हैं। इसलिए यह मेला उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण है।