ओआरएस के जनक डॉ दिलीप महालनोबिस का गुमनामी में निधन

ओआरएस के जनक डॉ दिलीप महालनोबिस का गुमनामी में निधन

दुनिया भर में सम्मान पाने वाले इस बंगाली डॉक्टर ने करोड़ों की जान, पर अपने ही देश में नहीं मिली मान्यता

साल 1971 के युद्ध के दौरान हैजा की महामारी के दौरान एक डॉक्टर ने बांग्लादेश के युद्ध और दुनिया भर में कम से कम 7 करोड़ लोगों की जान बचाई थी. इनमें ज्यादातर बच्चे थे. इस डॉक्टर का नाम डॉ दिलीप महालनोबिस था। ये डॉक्टर बाल रोग विशेषज्ञ होने के साथ साथ ओआरएस के जनक थे। डॉ दिलीप महालनोबिस ने जॉन्स हॉपकिन्स इंटरनेशनल सेंटर फॉर मेडिकल रिसर्च एंड ट्रेनिंग की मदद से शरणार्थी शिविरों में करोड़ों की जान बचाई थी। उनकी खोज का क्या महत्त्व है इसे इस बात से समझ सकते है कि वर्तमान में, दुनिया में लगभग हर कोई डायरिया की बीमारियों के इलाज के लिए ओआरएस का उपयोग करता है।


जानकारी के अनुसार ओआरएस के जनक डॉ दिलीप महालनोबिस ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। शनिवार की रात को कोलकाता के ईएम बाईपास के पास एक निजी अस्पताल में डॉ दिलीप महालनोबिस अंतिम सांस ली। सूत्रों के मुताबिक 88 वर्ष के डॉ. दिलीप महालनोबिस लंबे समय से बुढ़ापे की समस्या से जूझ रहे थे। 

 1971 के युद्ध के दौरान ओआरएस ने बचाई थी करोड़ों की जान


साल 1971 में बांग्लादेश युद्ध के दौरान पश्चिम बंगाल के बनगांव में एक शरणार्थी शिविर में हैजा फैल गया था. उस समय हैजा के इलाज के अत: स्रावी द्रव का इस्तेमाल होता था, लेकिन उसका स्टॉक भी खत्म हो गया था। इस अनिश्चित स्थिति में डॉ जॉन्स हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी सेंटर फॉर मेडिकल रिसर्च एंड ट्रेनिंग की मदद से डॉ. दिलीप महालनोबिस ने कैंप के निवासियों के लिए ओरल रिहाइड्रेशन थेरेपी या ओआरटी का उपयोग करने का जोखिम उठाया। ओआरएस में चार चम्मच टेबल सॉल्ट, तीन चम्मच बेकिंग सोडा और 20 चम्मच कमर्शियल ग्लूकोज का मिश्रण तैयार किया और इसका तत्काल प्रभाव पड़ा। ओआरएस के प्रयोग ने दो सप्ताह के भीतर उनकी देखरेख में शिविरों में मृत्यु दर को 30 प्रतिशत से घटाकर 3.6 प्रतिशत कर दिया. नमक और ग्लूकोज को मिलाकर ओआरएस कैसे बनाया जाता है. लैंसेट जर्नल ने ओआरएस को 20वीं सदी की ‘शायद सबसे महत्वपूर्ण चिकित्सा प्रगति’ कहा था, लेकिन, दुखद बात ये हैं कि डॉ दिलीप महालनोबिस और उनकी उपलब्धि को सबने भुला दिया। उनकी उपलब्धियों के लिए उन्हें केंद्र या राज्य सरकारों से उचित मान्यता नहीं मिली।  


विदेशों में मिली इज्जत लेकिन  अपने ही देश में नहीं मिला सम्मान


विश्व स्वास्थ्य संगठन ने डॉ दिलीप महालनोबिस के इलाज की मान्यता देते हुए ओआरएस का उपयोग करना शुरू कर दिया गया।  इस असाधारण योगदान के लिए 1994 में डॉ दिलीप महालनोबिस को रॉयल स्वीडिश एकेडमी ऑफ साइंसेज के सदस्य के रूप में चुना गया. डॉ दिलीप महालनोबिस को 2002 में, उन्हें संयुक्त राज्य अमेरिका से पॉलीन पुरस्कार और 2006 में थाईलैंड सरकार से प्रिंस महिदोल पुरस्कार मिला। हैरानी की बात यह है कि डायरिया के इलाज में क्रांति लाने के लिए दुनिया भर में सम्मानित होने के बाद भी बंगाली डॉक्टर को अपने ही देश में मान्यता नहीं मिली और बिना केंद्र या राज्य सरकार की मदद और सम्मान के बिना एक गुमनाम मौत मिली।