वैश्विक कृषि निर्यात बाजार में मप्र ने बनाया स्थान, इराक-ईरान समेत कई देशों में पहुंचा बुरहानपुर का केला
यह जानकारी शुक्रवार को जनसम्पर्क अधिकारी अवनीश सोमकुंवर ने दी
भोपाल, 2 फरवरी (हि.स.)। मध्यप्रदेश ने तेजी से वैश्विक कृषि निर्यात बाजार में अपना स्थान बना लिया है। प्रदेश के बुरहानपुर जिले से इराक, ईरान, दुबई, बहरीन और तुर्की को सालाना 30 हजार मीट्रिक टन केले का निर्यात हो रहा है। बुरहानपुर केले की प्रसिद्धि दूर-दूर तक पहुंच गई है। केला उत्पादक किसानों की मेहनत और सरकार की मदद ने बुरहानपुर को नई पहचान दिलाई है। लगभग 19000 केला उत्पादक किसान 23,650 एकड़ क्षेत्र में केले की फसल ले रहे हैं। इसमें बुरहानपुर से ही सालाना औसत 16.54 लाख मीट्रिक टन का उत्पादन होता है। एक जिला-एक उत्पाद योजना में केले को शामिल करने के बाद केला उत्पादक किसानों ने उत्साहपूर्वक निर्यात अवसरों का भरपूर लाभ उठाया है। यह जानकारी शुक्रवार को जनसम्पर्क अधिकारी अवनीश सोमकुंवर ने दी।
उन्होंने बताया कि कृषि निर्यात बाजार में किसानों की गहरी रुचि, कृषि व्यापार के मजबूत बुनियादी ढांचे और निर्यात कंपनियों की अच्छी उपस्थिति के कारण बुरहानपुर केले को अच्छा घरेलू और अंतरराष्ट्रीय बाजार मिल गया है। यहां मुख्य रूप से जी-9, बसराई, हर्षाली, श्रीमंथी किस्में उगाई जा रही हैं। प्रधानमंत्री सूक्ष्म खाद्य प्रसंस्करण उद्यम योजना में केला उत्पादन और प्रसंस्करण को बढ़ावा मिल रहा है। परिणामस्वरूप बुरहानपुर में 30 केला चिप्स प्रसंस्करण इकाइयाँ स्थापित हैं। कुछ इकाइयाँ केले का पाउडर भी बना रही हैं और मार्केट की तलाश में है।
बुरहानपुर के प्रवीण पाटिल अच्छे मुनाफे से खुश हैं। उनके पास दापोरा गांव में 60 एकड़ जमीन है, जो बुरहानपुर जिला मुख्यालय से 16 किमी दूर है। दापोरा एक ग्राम पंचायत है जिसमें लगभग 700 घर हैं। उन्होंने केले की खेती का गुर अपने पिता और दादा से सीखा। प्रवीण बताते हैं कि पिछले दो सीजन में बाजार भाव अच्छा रहा। बाजार की मांग के अनुसार 2,000 से 2,500 प्रति क्विंटल तक केला बिका। हर सीजन अच्छा नहीं रहता। कई बार मांग और आपूर्ति में भारी अंतर होता है।
खेती की लागत के बारे में प्रवीण बताते हैं कि यह लगभग प्रति पौधा 140 रुपये तक आती है। वे 300 से 500 पौधे लगाते हैं। सबकुछ ठीक रहा तो 450 से 500 क्विंटल तक उत्पादन होता है। अत्यधिक वर्षा, मौसम और खेतों में पानी का भराव केले के पौधों को नुकसान पहुंचाता है, जो कक्यूम्बर मोज़ेइक वायरस- सीएमवी का शिकार हो जाते हैं। वे कहते हैं कि वायरस लगे पौधों को नष्ट करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता।
प्रवीण 15 सदस्यों के संयुक्त परिवार में सबसे बड़े हैं। दो छोटे भाई साथ रहते हैं। बड़ा बेटा रोहल पाटिल इंदौर की एक निजी यूनिवर्सिटी में मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा है। छोटा बेटा श्वेतल पाटिल इसी यूनिवर्सिटी में कंप्यूटर साइंस की पढ़ाई कर रहा है। दोनों छुट्टी के दौरान कभी-कभी खेती की गतिविधियों में सहयोग कर देते हैं। प्रवीण बताते हैं कि बुरहानपुर केले का घरेलू बाजार अच्छा है। हमारा केला नई दिल्ली और हरियाणा तक जाता है। मैं उन लोगों के संपर्क में भी रहता हूं जो कृषि निर्यात करते हैं।
बुरहानपुर से 19 किमी दूर इच्छापुर गांव है, जहां केले की खेती करने वाले किसानों की संख्या काफी है। अधिकतर किसान पारंपरिक खेती करते हैं। यहां के 37 वर्षीय किसान राहुल चौहान के पास 25 एकड़ जमीन है। वे बचपन से ही केले की खेती के तौर-तरीकों से परिचित हो गये थे। वे 17 सदस्यों के संयुक्त परिवार में रहते हैं। वह चार भाइयों में सबसे बड़े हैं। उनका बेटा विश्वनाथ प्रताप सिंह चौहान दूसरी कक्षा में पढ़ता है जबकि बेटी प्रिया छठी कक्षा में है। उनके पास एक ट्यूबवेल और एक पारंपरिक कुआं है। वे खेती का अर्थशास्त्र अच्छी तरह जानते हैं। लाभ-हानि के बारे में विस्तार से समझाते हुए वे कहते हैं कि यह सब मौसम और बाजार के व्यवहार पर निर्भर करता है।
कई बार बाजार भाव अच्छे होते हैं लेकिन फसल अच्छी नहीं होती। कभी फसल अच्छी होती है लेकिन भाव नहीं मिल पाते। वे वायरस हमले के प्रति भी चिंतित रहते हैं और बताते हैं कि सीएमवी वायरस स्वस्थ केले के पौधे के लिए एकमात्र खतरा है। उनका कहना है कि अगर पूर्ण विकसित पौधों में सीएमवी हो तो हमें उन्हें जड़ से उखाड़ना होता है। राहुल बताते हैं कि वे दिन गए जब पूर्वजों का मानना था कि ज्यादा पौधे ज्यादा उपज देंगे। हम 8x5 फीट जगह में पौधे लगा रहे हैं। प्रति एकड़ 1,200 पौधे लगाते हैं। पहले 1,800 पौधे प्रति एकड़ लगा रहे थे। प्रति पौधे की लागत लगभग 150 रुपये तक आती है। एक एकड़ में 1.5 लाख का शुद्ध मुनाफा हो जाता है। एक सीजन का लाभ 25 लाख रुपये तक पहुंच जाता है। इसमें खेती की लागत भी शामिल है।
राहुल बताते हैं कि एक एकड़ खेती की लागत लगभग रु. 70 हजार तक आ जाती है। एक विकसित पौधा 15 किलोग्राम से 20 किलोग्राम तक के गुच्छे देता है। यदि अच्छी तरह से देखभाल हो जाए तो प्रति गुच्छा 30 से 35 किलोग्राम तक पहुंच जाता है। उनका मानना है कि केला उत्पादकों के हित में मंडी प्रणाली की कार्यप्रणाली में और सुधार करने की जरूरत है। उपज बेचने में प्रक्रिया में देरी से अच्छे मुनाफे की संभावनाएं प्रभावित होती हैं।
जिला मुख्यालय से 11 किमी दूर शाहपुर गांव के राजेंद्र चौधरी जैसे छोटे किसान भी बहुत संख्या में हैं। उनके पास चार एकड़ जमीन है जिस पर वह 5000 पौधे लगाते हैं। वे औसतन पांच लाख रुपये कमा लेते हैं। उनका कहना है कि पिछले दो-तीन सीजन में बाजार किसानों के लिए बेहद अनुकूल रहा है। उनका बेटा मोहित चौधरी एक स्थानीय प्रबंधन कॉलेज से एमबीए कर रहा है, जबकि छोटे बेटे अनिकेत ने पास के खकनार सरकारी पॉलिटेक्निक से फिटर ट्रेड में डिप्लोमा किया है।
केले के उत्पादन ने केला चिप्स प्रसंस्करण इकाइयों को जन्म दिया है। फिलहाल बुरहानपुर में ऐसी 30 इकाइयां हैं। योगेश महाजन केले के चिप्स बनाने की इकाई मारुति चिप्स चलाते हैं। उनका सालाना टर्नओवर 20 से 25 लाख रुपए है। उनका कहना है कि केले की आसान उपलब्धता और लगातार आपूर्ति ने उन्हें चिप्स बनाने की इकाई खोलने के लिए प्रेरित किया। वे किसानों से सीधी खरीद करते हैं। खरीद दर फसल की आवक के अनुसार बदलती रहती है। खेतों से सीधे खरीद की दर पांच रुपये प्रति किलोग्राम है। प्रोसेसिंग के बाद एक किलो चिप्स के पैक की थोक दर 150 रुपये है जबकि बाजार में खुदरा कीमत 200 रुपये प्रति किलो है। बाजार के बारे में उनका कहना है कि केला चिप्स अपनी गुणवत्ता के कारण पसंद किये जाते हैं। चिप्स की गुणवत्ता स्वच्छता, तलने की तकनीक, गुणवत्तापूर्ण खाद्य तेल का उपयोग, कुरकुरेपन पर निर्भर करती है।
उनका कहना है कि चिप्स बनाने के काम में जरूरतमंद स्थानीय महिलाओं को लगाया जाता है। प्रशिक्षण के बाद वे अब कुशल हो गई हैं। राहुल बताते हैं कि उनके पास अच्छा ग्राहक आधार है और भोपाल जैसे महानगरों में कुछ आउटलेट भी हैं। बुरहानपुर केले के चिप्स अब अपनी पहचान बन चुके हैं। केला उत्पादक किसानों को अच्छा मुनाफा मिलना चाहिए। इससे हमारी चिप्स इकाइयां भी अच्छे से चल चलेंगी। हाल ही में जब बुरहानपुर को राष्ट्रीय स्तर पर एक जिला-एक उत्पाद पुरस्कार-2023 में स्पेशल मेंशन श्रेणी का पुरस्कार मिला तो गोकुल चौधरी, तुषार पाटिल जैसे केला उत्पादक किसान दिल खोलकर खुश हुए।